साहिबगंज:- 24/10/2018. जी हां वही साहिबगंज जो कभी अंग्रेज साहबों का ठिकाना हुआ करता था..। आज यहां न साहब रहे न साहबी ठाट, बच गए बस हम गंजहे लोग..। यहाँ आजादी के बाद जो निरन्तर विकास के कसीदे गढ़े गए, वह डॉ० श्रीलाल शुक्ल की कालजयी रचना "राग दरबारी" की याद दिलाती है..। राजनीति में घुसे शनिचर, वैद्यजी, और भ्रष्ट अधिकारियों, ठीकेदारों के मिलीभगत से यहां की बेहतरीन छवि उभरी है..। साहिबगंज जो कभी महत्वपूर्ण व्यवसायिक मंडी, व रेल प्रतिष्ठान का केंद्र था..। यहाँ एक सांस्कृतिक विरासत, समृद्ध साहित्यिक परिवेश, उच्च शैक्षणिक वातावरण था..। जो आज शायद ही कुछ शेष है..। हमने जब होश संभाला साहिबगंज जिला अस्तित्व में आ चुका था..। महत्वपूर्ण रेल प्रतिष्ठान यहाँ से मालदह ले जाया जा चुका था..। रेलवे के तमाम क्वाटर्स वीरान हो गए थे..। सैकड़ों एकड़ भूखण्ड बेकार हो चुके थेे..। यही से शुरू हुआ, यहाँ के स्थानीय लोगों की दुर्दशा..। केलाबाड़ी पोखरिया में लगभग 70 एकड़ जमीन 1958-59 में भू-अर्जन वाद सं०-15/58-59 द्वारा रेलवे के क्वाटर्स बनाने एवं विकास के लिए यहाँ के गरीब किसान रैयतों से भू-अर्जन की प्रक्रिया के तहत रैयतों को मुआवजा देकर अधिगृहित की गई थी..। जिसे बाद में रेलवे द्वारा अनुप्रयुक्त होने के कारण मूल रैयतों को वापस करने हेतु रेलवे ने यहाँ के उपायुक्त को 1996 में पत्र लिखा..। जबकि जिला प्रशासन रैयतों के हित की अनदेखी करते हुए इस जमीन पर सेंट्रल स्कूल, बस स्टैंड बनाने हेतु रेलवे से 25 एकड़ जमीन की मांग की..। इस तथाकथित जमीन पर न सेंट्रल स्कूल बना, न बस स्टैंड..। बाद में उक्त स्थल पर टाउन हॉल व मनोरंजन पार्क बनना प्रारंभ हुआ..। टाउन हॉल निर्माण भी हाई कोर्ट में केश हो जाने की वजह से अधूरा ही रहा..। इधर, बस स्टैंड के स्थान पर टाउन हॉल अवतरित हुआ और अधुरे टाउन हॉल को विध्वंस कर वहां जल मीनार बनाई जाने लगी..। वह भी हाथीदांत ही साबित हुआ..। इस जल मीनार में जहाँ से पानी आना था वहाँ की जमीन बंदरगाह के लिए चिन्हित कर ली गई..। अर्थात पेयजलापूर्ति योजना भी फ़ेल..। जिनकी जमीन उक्त योजनाओं के लिए अधिगृहित की गई, वह परिवार आज भी दर-बदर की ठोकरें खाने को मजबूर है..। भू-अधिग्रहण कानून के तहत जिस योजना के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जाता है, जमीन का उपयोग इतर योजना के लिए नहीं की जा सकती..। यह रैयतों के साथ धोखा है..। इधर, रैयती जमीन व सरकारी धन का विकास के नाम पर लूट व बंदरबांट होता रहा..। ये सारी योजनाएं जमीन पर उतर सकती थी, अगर पदाधिकारियों की नीयत साफ होती..।
जब कोई योजनाएं स्वीकृत होती है, तो उसके लिए जमीन की आवश्यकता होती है इसके लिए रैयतों से अधिगृहित की जाने वाली जमीन की मुआवजा राशि भी स्वीकृत होती है..। थोड़ी आगे बढ़े तो, साहिबगंज में नवोदय स्कूल का निर्माण जिला प्रशासन ने बंदूक की नोंक पर करवाया..। जो एक लोकतांत्रिक देश में जनता के साथ बर्बरतापूर्ण कार्यवाही थी..। अभी भी सीवरेज के नाम पर जो जमीन को रैयतों से छीना जा रहा है, वह अन्याय है..। विकास होना चाहिए, लेकिन शहर के रैयतों की लाश पर नहीं..। रैयतों को उचित मुआवजा मिलना चाहिए..। ये जो प्रशासन खासमहाल की चोंचलाबाज़ी करती है..। यह निरीह जनता की जमीन छीनने का बहाना मात्र है..। यदि खासमहाल है तो सरकार उसे सिद्ध करें..। दीवानी मामला कागज़ व दस्तावेज़ों से सिद्ध होगा, मौखिक आदेश से नहीं..। यदि यहाँ की जमीन खासमहाल की थी, तो पूर्व में जमीन का मुआवजा किस आधार पर भुगतान किया गया..।
******************
साहिबगंज :-16/10/2018. मौखिक आदेश से चलता है जिला मुख्यालय, यहाँ नहीं समझी जाती है कानून की जरूरत...!
******************
साहिबगंज :-16/10/2018. मौखिक आदेश से चलता है जिला मुख्यालय, यहाँ नहीं समझी जाती है कानून की जरूरत...!
जी हाँ, साहिबगंज जिला अंतर्गत जिला मुख्यालय के भू-राजस्व कार्यालय में कार्यान्वयन कानून या अध्यादेश से नहीं बल्कि कार्यपालिका के मौखिक आदेश से चलता है..। यह किसी व्यक्ति की मान्यता नहीं बल्कि जिला प्रशासन द्वारा RTI अंतर्गत पूछे गये एक सवाल के जबाब में कहा गया है..। जिसकी प्रति आप नीचे देख सकते हैं..। हाँ, आजादी के 70 साल बाद भी हम अंग्रेजी मानसिकता से उबर नहीं पा रहे हैं..। कार्यपालिका, विधायिका पर हावी है..। सरकारें भले आसमान में विकास की सेंचुरी बना ले...। जमीन पर तो 70 साल में ढाई कोस भी नहीं चल पाई...। प्रजातंत्र की पहली शर्त भूखण्ड है, उस पर ही सरकार फेल...। हां, दूसरी शर्त जनसंख्या पर भले हमें कोई पछाड़ नहीं सकता..! लेकिन उसमें सरकार का कोई रोल नहीं..। उसके लिए हम ही काफी है...! बुनियादी बातें यह है कि जब आजादी मिली तो हमारी पहली प्राथमिकता यह थी कि हमें अपने द्वारा अंगीकृत संविधान के तहत अपने सम्प्रभुता के साथ-साथ भूखण्ड की रक्षा करना भी था..। भूखंड की रक्षा का संदर्भ सिर्फ सीमा पर विदेशी शत्रुओं से रक्षा के लिए नहीं..। बल्कि देश के अंदर शांति, सद्भाव व परस्पर प्रेम से रहने के लिए एक वातावरण का निर्माण करना भी है...। जिसमें काश्तकारी अधिनियम का सबसे बड़ा रोल है। सनद रहे, जीवन में ज़मीन का महत्व समझने के लिए हमें न्यायालय का सहारा लेना पड़ेगा..। आज न्यायालय में 90 फीसदी मामले ज़मीन के विवाद से जुड़े हैं..। जानकर आपको हर्ष होगा कि अंग्रेज सरकार ज़मीन के मामले में इतनी सेंसेटिव रही कि वह हर दस वर्ष में सर्वे तथा उसका प्रकाशन 15 वर्षों में नियमित रूप से करती रही। काश्तकारी अधिनियम की समय-समय पर समीक्षा व उसमें संशोधन आदि जरूरत के हिसाब से की जाती रही..। बतौर उदाहरण संथाल परगना गजेटियर है, जिसका कई संस्करणों में प्रकाशन किया गया है..। आजादी के बाद इसकी महत्ता नहीं समझी गई..।
आज हम अंग्रेजों के ही बनाये गये सारे नियम-कानून पर लकीर की फ़क़ीर की तरह चल रहे हैं..। नतीज़तन कार्यपालिका, विधायिका पर धौंस जमाये पड़ी है..। सरकारें राजस्व के मामलों को कुछ समझ नहीं पाती..। क्योंकि यह बड़ा पेंचीदा व अलाभकारी है..। इसमें परसेंटेज का भी कोई जुगाड़ नहीं..। और एक काल्पनिक भय भी है, इसलिए इन विषयों से बचना चाहती है..। जब ऐसी खाली जमीन मिले तो क्यों न कोतवाल अपने मौखिक आदेश का घोड़ा दौड़ाए..!
******************
आज हम अंग्रेजों के ही बनाये गये सारे नियम-कानून पर लकीर की फ़क़ीर की तरह चल रहे हैं..। नतीज़तन कार्यपालिका, विधायिका पर धौंस जमाये पड़ी है..। सरकारें राजस्व के मामलों को कुछ समझ नहीं पाती..। क्योंकि यह बड़ा पेंचीदा व अलाभकारी है..। इसमें परसेंटेज का भी कोई जुगाड़ नहीं..। और एक काल्पनिक भय भी है, इसलिए इन विषयों से बचना चाहती है..। जब ऐसी खाली जमीन मिले तो क्यों न कोतवाल अपने मौखिक आदेश का घोड़ा दौड़ाए..!
******************
साहिबगंज:-12/10/2018. साहिबगंज में जिस काला कानून को हम अक्सर समाप्त करने की बात करते हैं..। पहले यह जानना आवश्यक है कि यह तथाकथित खासमहाल साहिबगंज के संदर्भ में कोई कानून अथवा अध्यादेश नहीं है, बल्कि यह सरकारी आदेश का एक संग्रह मात्र है..। हम जानते है कि जो कानून नहीं, उसे कार्यान्वयन करने की शक्ति कार्यपालिका के पास नहीं है..। साहिबगंज नगरपालिका 1905 में अस्तित्व में आ चुका था..। यहां की जमीन पर सभी रैयत को सभी तरह की जमीनों पर 12 वर्षों से अधिक निवास करने के कारण तत्कालीन कानून के हिसाब से ऑक्यूपेंसी राइट 1925 तक प्राप्त हो चुका था..। बात दीगर हो कि झारखंड व संयुक्त बिहार में आजादी के बाद से काश्तकारी अधिनियम पर कोई काम नहीं हुआ..। काश्तकारी अधिनियम के तहत हर दस वर्ष पर सर्वे और 15 वर्षों में सेटलमेंट का प्रकाशन होना था..। आश्चर्य यह है कि यहाँ की जमीन का पिछले 100 सालों से पूर्ण सर्वे नहीं हुआ है..। हम जिस खासमहाल की बात कर रहे है उसे अंग्रेजों ने बनाया ही नहीं, उन्होंने सिर्फ यह नियम बनाया की जो बाहर से लोग यहाँ निवास करने आएंगे वे तत्कालीन अनुमंडलाधिकारी से अनुमति लेंगे..। ऐसा सिर्फ उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए किया था..।
चूँकि यहाँ अंग्रेज सरकार व रेलवे के बड़े अधिकारी रहते थे..। यह एक्सकुटिव आदेश, कानून नहीं था..। जमीन की खरीद-बिक्री 1970 तक इसी तरीके से निर्बाध होता रहा..। जब अंग्रेज ने कोई कानून बनाया नहीं, आजाद भारत मे भी किसी सरकार ने किसी भी कानून अथवा अध्यादेश से यहाँ की जमीन का नेचर बदला नहीं तो यह रैयती जमीन सरकारी हुई कैसे..? क्या किसी अधिकारी को जमीन का नेचर बदलने का अधिकार भारत का संविधान देता है..? यह विषय संविधान को चुनौती देता प्रतीत होता है...। संथाल परगना एस०पी०टी० एक्ट से GOVERN (गवर्न) होता है..। एस०पी०टी० एक्ट कहता है कि संथाल परगना में 1556 वर्गमील का दामिन-ई-कोह का क्षेत्र ही खासमहाल है..। इसके बाहर खासमहाल की कल्पना एस०पी०टी० एक्ट का उल्लंघन है..। फिर किस हैसियत से लगातार यहाँ के रैयतों का सरकार भयादोहन करती रही है, यह यक्ष प्रश्न का उत्तर आखिर देगा कौन..? इस अंतहीन यात्रा का अंत आखिर कितने मासूमों की हत्या का कारण बनेगा..। इसका जबाब एक जिम्मेदार सरकार को ढूंढ़ना पड़ेगा..। अन्यथा लोगों का क़ानून से भरोसा उठ जाएगा..!