04 दिसंबर 2019

रचना :- आनंद अमन..!رچنا :- آنند امن



क्योंकि हम इंसान थे..!

चुनावी दौर है, 
आचार संहिता का माहौल है।
अशर्फी की लूट में, 
मुहर हेतु अलग-अलग छाप है।।
हर उम्मीदवार जुझारू-कर्मठ, 
आदर्शवादी व चरित्रवान नजर आ रहे हैं।
गली-मोहल्लों में कतारबद्ध हो,
अपनी-अपनी एक-दूसरे से पहचान बता रहे हैं।।
पुनः उनकी भोली बातों में फँसा जा रहा  हूँ।
उनके साथ न जाने क्यों, 
मैं भी उनकी प्रशंसा किये जा रहा हूँ।
हर दल के नेता अपनी-अपनी विजय पताका बाँट रहे थे।
मैंने भी भविष्य के काम की चीज समझकर ले ली।
समस्या थी इसे फहराने की, मुझे कुछ न सूझा।
मैंने सभी को एक ही डंडे में बांध, 
खुले गगन में लहरा दिया।
सभी इसे अचंभे से देख रहे थे, 
मैं भी अपनी बुद्धिमानी पर खुश हो रहा था।
देखा इलेक्शन के दिन बैलेट पेपर पर, 
सभी अपनों के ही निशान थे।
मार दिया सभी पे मुहर, 
क्योंकि हम इंसान थे।।


*********

मर्यादाएँ...!


कुछ शब्द बड़े अप्राकृतिक लगते हैं...!
उनमें एक शब्द,
मेरे कानों को बहुत तकलीफ देता है....!!
वह शब्द है "मर्यादा"..!
यह बड़ा ही अलोकतांत्रिक शब्द है..!!
जो बांधता है किसी की क्षमता,
नियंत्रित करता है किसी व्यक्तित्व को,
बताता है इंसान को उसकी औकात..!
जबकि हर इंसान की जमीन भले हो संकुचित,
पर सम्पूर्ण आसमान खुला होता है..!!
यह शब्द सामंती व्यवस्था के समकक्ष है..!
इस शब्द ने कर्ण को विस्थापित कर दिया..!
एकलव्य को अंगुष्ठ विहीन कर दिया..!
बावजूद, महाभारत को टाला न जा सका..!!
क्योंकि, मर्यादा रक्षा के लिए, मर्यादा से खेला गया..!
समय की गति को अपने अनुसार टाला गया..!!
मर्यादा समाज को करता है, कुंठित..!
मानव जीवन को करता है, व्यथित..!!
मर्यादा, व्यक्ति-समाज-काल सापेक्ष होता है..!
मर्यादा, हर समाज का व्यष्टिगत विषय होता है..!!
मर्यादाएँ,दूसरों पर थोपना अपराध है..!
दूसरों से पालन की अपेक्षा भी गलत है..!!
मर्यादाएँ, बनी समाज संचालित करने के लिए..!
यह नहीं है जंजीर, प्रवाह बाँधने के लिए..!!
संसार नित नए मर्यादाएँ, गढ़ता है..!
पुरानी परंपराओं को तोड़, आगे बढ़ता है..!!
इतिहास गवाह है, ऐसे ही नए इतिहास गढ़े गए..! 
मर्यादाओं की सीमा तोड़, हम जब बढ़ गए..! 

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भूमंडलीकरण..!


हो गए हम पेटेंट,
अब मैं क्या करूँ..??
बापू ने प्रेस-कांफ्रेंस बुलाई
दिया यही बयान......!!!
हम सपूत थे देश के,
सब हो गए, दल विशेष के।
हर किसी ने अपने ढंग से,
अपनी पहचान बताई।
अपने-अपने वसूलों की
खूब हुई धुनाई।।

हो गए हम पेटेंट, 
अब मैं क्या करूँ..??
"सत्य-अहिंसा" को छोड़कर....
कुछ दलों ने मेरे मूरत की,,
कुछ दलों ने, मेरे सूरत की।
कर ली है पेटेंट, 
अब मैं क्या करूँ..??

अम्बेडकर ने भी गम्भीर मुद्रा में,
अपने विचार सुनाए...l
'समरसता' के प्रयोग के,
सारे जख्म दिखाए...ll 
कहते-कहते उनके,
दोनों नैन भर आए...!!
इतने वर्षों बाद भी, हम बस...
समुदाय विशेष के ही, रह पाए..!!

इतना सुनकर लौह-पुरुष ने,
अपना माथा पकड़ा..!
'एकता-सूत्र' में बांधने चले थे,
हमें ही पेटेंट ने जकड़ा..!!
हो गए हम पेटेंट, 
अब मैं क्या करूँ..??

वीर शिवाजी, वीर कुँवर सिंह,
वीर भगत सिंह, सुभाष, आजाद ने
यहाँ तक की, कविवर रविंद्र ने
सबने अपनी गाथा रोई..!
हो गए हम पेटेंट, 
अब मैं क्या करूँ..??

हेडगेवार और दीनदयाल का
मानव चिंतन, राष्ट्रीय चिंतन
सामाजिक परिवर्तन की 'फिलॉसफी',
सत्ता की होड़ में, कुर्सी के गठजोड़ में,
हो गई अब तब्दील, अब मैं क्या करूँ..??
हो गए हम पेटेंट, अब मैं क्या करूँ..??

**************

कोई पत्ता तो हिले, 

कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, 
अंदाजा तो लगे।
बयार कितनी भी हो तूफानी, 
अब पत्ता नहीं हिलता।
हर घर है फूस का, 
पर डर नहीं लगता।।

कोई पत्ता तो हिले, 
कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, 
अंदाजा तो लगे।
सत्य कितना भी कुचला जाय, 
अब सत्ता नहीं हिलता।
हर मुखौटा भ्रष्ट है, 
अब न्याय नहीं मिलता।।

कोई पत्ता तो हिले, 
कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, 
अंदाजा तो लगे।
संविधान कितना भी चुस्त हो, 
जुर्म रुक नहीं सकता।
जो सत्य पर अडिग हो, 
अब टिक नहीं सकता।।

राजनीति के इस माहौल में, 
कोई सिद्धान्त नहीं दिखता।
सत्ता के गलियारों में नित,  
नई खिचड़ी है पकता।।
समाज को वर्गों में बांटकर,
बेखौफ है सत्ता।
यहाँ, अच्छे-अच्छे अटल भी, 
टलते है दिखता।।

कोई पत्ता तो हिले, 
कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, 
अंदाजा तो लगे।
इस नेता-तंत्र ने तो बता दिया, 
जनमत का धत्ता।
इस खेल में बेचारी जनता तो है बस, 
53वां पत्ता।।
कोई पत्ता तो हिले, 
कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, 
अंदाजा तो लगे।
बयार कितनी भी हो तूफानी, 
अब पत्ता नहीं हिलता।
हर घर है फूस का, 
पर डर नहीं लगता।।

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दरिया को सागर में मिलने से,
रोक कौन सका है..??
बाँध दो चाहे कितने बंधन,
दरिया तोड़ बहा है..!!
दरिया है बेताब मगर, 
सागर कहाँ अचल है।
सागर के लहरों का भी, 
ज्वार बड़ा प्रबल है।।
दरिया को आलिंगन करने, 
सागर बाँह फैलता है।
पूनम-अमावस में, 
प्रणय-विभोर.... 
जब सागर मतवाला होता है।।
मैं हिम पुत्री हूँ, 
सागर मेरा अभिष्ट है।
मैं अजस्र धारा हूँ, 
मिलन हमारा शाश्वत है।।
कैद करोगे कबतक मुझको, 
क्षुद्र बांध-बराजों से।
तोड़ बहूंगी जब मैं चाहूँ, 
अपने कूल-किनारों से।।
मुझमें विशाल पर्वतों का धैर्य, 
घाटी-सी गहराई भी।
मेरे ऊर में बहती है, 
पूर्वजों की थाती भी।।
मधुर-शीतल जल मैं देती, 
आँसू खुद पी जाती हूँ।
अपने बच्चों के लालन को, 
कैद में रह जाती हूँ।।
मेरे होंठों की लाली, 
काजल अभी सुरक्षित है।
जैसे मैं अधूरी हूँ, 
सागर भी तो वंचित है।।
आँसूओं को पीकर, 
सागर खारा बन जाता है।
प्रलयकाल में प्रियतम मेरे, 
कालजयी कहलाता है।।
दरिया को सागर में मिलने से,
रोक कौन सका है..??
बाँध दो चाहे कितने बंधन, 
दरिया तोड़ बहा है..!!
दरिया है बेताब मगर, 
सागर कहाँ अचल है।
सागर के लहरों का भी, 
ज्वार बड़ा प्रबल है।।
दरिया को आलिंगन करने, 
सागर बाँह फैलता है।
पूनम-अमावस में प्रणय-विभोर 
जब सागर मतवाला होता है।।

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लोकतंत्र..!

शाम होते ही चुनावी भाषण की तरह
मोहक, आकर्षक, कर्णप्रिय, मधुर संगीत
कानो को छू जाता है,हमें झंकृत करता है !
हम बरबस ही आह्लादित होते हैं, ताली मार देते हैं।
आवाज़ सुनकर वे ख़ुश होते हैं, इठलाते हुए उड़ जाते हैं।।
हमें पता है इसकी पैदाईश
झूठ, छल-प्रपंच, अत्याचार-अनाचार की गंदगी,
और रुके विकास के सड़े पानी में होता है।
शायद! इसलिये इसकी पहुंच बाथरूम से, पूजाघर तक होता है।।
ये चूसते हैं खून , बड़े प्यार से
मदद लेते हैं, अफ़सर-चमचे और रसूखदार से।
पहचाने जाते नहीं, धर्म-जाति या रिश्तेदार से।
सभी संतुष्ट हैं, इनकी समानता के व्यवहार से।।
सुबह होते ही अस्तित्व विहीन हो जाते हैं
मानो चुनाव जीतकर,दिल्ली चले जाते हैं।
पर इतनी भलमनसाहत तो है, इन मच्छरों में।
नेताओं की भांति, समय पूर्व-मध्यावधि में नहीं आते हैं।। 



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साहिबगंज 20/11/2019. 


मेरी किस्मत ने मुझे, तेरा होने न दिया 
इसमें कसूर आखिर, मेरा क्या है?
भले अख्तियार नहीं तुझपे मेरा
दिल ही तो दिया, मैंने लिया क्या है?
यूँ बेरुखी अब अच्छी नहीं लगती
इस दौर में, पास मेरे बचा क्या है?
तू मेरी नहीं, यह सही है मगर
दिल समझता नहीं, ये बला क्या है?
बहुत जद्दोजहद है, दिमाग में मेरे
जानम समझा दो, ये माजरा क्या है?
अब जी भर गया,
इस जिंदगी से मगर यहाँ से जाना कहाँ है,
वो पता क्या है?
क्यों उलझता हूँ मैं, कहती हो हर वक्त
आखिर मुझमें अब, सुलझना क्या है?
जाते-जाते भी करता रहूँ, इंतज़ार तेरा
इस हसीं मौत के आगे, जिंदगी क्या है?

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साहिबगंज 15/07/2017. 

कब तक  छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज की जनता का,  शायद यही क़िस्मत है।।
गंगातट के भोले-भाले, मौजों से लड़ने वाले 
गंगा-सा निर्मल, कोमल चित्त, बैलों संग रहने वाले।
हम कृषक है सदियों के, जमीं हमारी थाती है..!
"खासमहल" कहकर इसे,क्यों? प्रशासन हमें सताती है..।।
1956 से यहाँ गंगा पर पुल बन रहा है।
कब पूरा होगा न मालुम, 50 साल बीत गया।।
कब तक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज  की जनता का, शायद यही किस्मत है।।
आँखों में आंसू आते हैं,यादकर रेल-क्रांति को। 
कितनी नृशंसता-बर्बरता से? लागु किया गया था, निषेधाज्ञा को।।
आवाज हमारी दबा दी गई, क्षुब्ध जनता खामोश हो गई।।
हम कायरों के द्वारा, शंभु की शहादत भुला दी गई।।
कब तक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज की जनता का, शायद यही किस्मत है।।
क्रांति की कोख में जन्मी बच्ची की,शायद भर गयी हो माँग।
पर 27 जुलाई 94 से अबतक, पूरी नहीं हुई, एक भी मांग।।
न कंट्रोल-रूम यहाँ आया, न विक्रमशिला ही आई।
विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय को छूने का सौभाग्य न पाई।। 
कब तक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज की जनता का, शायद यही किस्मत है।।
न कोई कारखाने लगे, दोहरीकरण पूरा न हुआ।
94 की क्रांति में, संभवतः प्रेम हमारा पूरा न हुआ।। 
पुनः एकबार जागना होगा, अपनी ताकत दिखाना होगा।
सिंधु की गहराई में, दृढ़ निश्चयी हो कूदना होगा।।
कबतक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज की जनता का, शायद यही किस्मत है।⁠⁠⁠⁠
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पीठ में खंज़र घोंपा है, देश के गद्दारों ने।
वीर-बाँकुडों का लहू, चस्पा है दीवारों में।।
कतरे-कतरे लहू का हम, हिसाब करेंगे दिल्ली में।
एल०ओ०सी० की बात नहीं, तिरंगा फहरेगा रावलपिंडी में।।
मंज़ूर नहीं मां भारती के, आँचल में कोई दाग रहे।
आतंकवाद के साथ-साथ, न मुल्क कोई नापाक रहे।।
बहन कर्णावती की चिट्ठी, आई पुनः है दिल्ली को।
बलूच को आज़ाद कर, सबक सिखाएं शेखचिल्ली को।।
रोज-रोज किसी बहन की, सिंदूर नहीं मिटने देंगे।
मां-बाप के बुढ़ापे की, लाठी नहीं टूटने देंगे।।
दादी और नानी की, अब छाती नहीं फटने देंगे।
मिटा देंगे नापाक तुझे, देश की आन न झुकने देंगे।।
चिंगारी जो लगाई तूने, शिव तांडव हम फैलाएंगे।
तेरे खूँ की होली से, माँ भारती की नहलायेंगे।।
जंग भले हो चंद दिवसों की, नरसंहार बड़ा भीषण होगा।
धरा से हो नापाक विलुप्त, यही हमारा मिशन होगा।।
बस यही हमारा मिशन होगा।।




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अजीब इत्तेफाक है इस शहर का
हर आदमी परेशान है इस शहर का।
यहाँ अस्पताल भी जाना है तो, कब्रिस्तान के रास्ते।
अंजुमन भी है यहाँ, मयखाने के रास्ते।।
पहले साहब थे, अब गंजहे रह गए, 
थे कभी जो जमींदार, आज रहमगीर हो गए।
बहती है यहाँ गंगा, पर पानी नहीं है।
उजड़ते-मिटते राजमहल हिल में वो रवानी नहीं है।।
अजीब इत्तेफाक है इस शहर का
हर आदमी परेशान है इस शहर का।
यहाँ अस्पताल भी जाना है तो, कब्रिस्तान के रास्ते।
अंजुमन भी है यहाँ, मयखाने के रास्ते।।
ऐसा भँग घुला है, यहाँ के आब में।
बुजुर्गों के मिज़ाज तंग, नौजवान डूबे शराब में।।
चौपाल-संस्कृति यहाँ आज भी बरकरार है।
जहां रोज़ बनती और ढहती सरकार है।।
डार्विन का विकासवाद भी यहाँ धोखा है।
हमने इस शहर को नित पिछड़ते देखा है।।


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                  ~: उल्फ़त :~
किसी और राह में दिल लगाना पड़ेगा..।
ज़माने से अब दूर जाना पड़ेगा..।।
यही सोच कर रुक गए राह में हम,
इधर भी तेरा आशियाना पड़ेगा..।।
अगर जज़्बे उल्फ़त है सादिक़ तो एक दिन,
तुम्हें मेरे पास आना पड़ेगा..।।
जो मैं यह जानता तो, उल्फ़त न करता,
कि इस रास्ते में जमाना पड़ेगा..।।
वफ़ा की राह में गर जीना है तुमको,
तो गम में भी मुस्कुराना पड़ेगा..।।
मैं बेबस हवाओं का झोंका, जो ठहरा..
जिधर तुम कहो मुझको जाना पड़ेगा..।।
गर यूँ ही यहाँ होती रही नुक्ताचीनी,
तो महफ़िल को अलविदा कहना पड़ेगा..।।
तूफ़ाँ से उम्मीद यही है 'आनंद' इक दिन
यह किश्ती किनारे लगाना पड़ेगा..।।





********************

जिंदगी, बस याद ही तो है।
यह याद दिलाती है, मुझे..
गंगा की वो शांत लहरें,
रुकी हुई, ठहरी बयारें,
और सूनी-सूनी वादियों का,
सूनापन।
जिंदगी, बस याद ही तो है।
यह याद दिलाती है, मुझे
मेरे पीपल का छाँव,
बरगद का गाँव,

पपीहे का पपिहाना,

गौरैये का चहचहाना,
दिन ढलते, लौटती गायों का रंभाना,
उसकी गलबन्धों का खंखनाना..।
जिंदगी, बस याद ही तो है..।
जो याद दिलाती है गर्म 'लू '  
हमें जेठ की दुपहरी की..।
आम के बागों में घूमता,
बेपरवाह बचपन का..।
नंगे पाँव, नंगे बदन,
फिर भी नहीं होती थी, 
तनिक भी शिकन..!
शायद! धधकती धरती भी
हार जाती थी,
देख अबोध साहस।
पर, अब नहीं है........! हमारे पास
वह मटर के खेत, 
टेढ़ी-मेढ़ी आरियां,
सोंधी-सुगंध फैलाती,
छोटी-छोटी क्यारियां।
जिंदगी, बस याद ही तो है।
याद करता हूँ , मैं ....!
वह, गोधूलि शाम,
जब पनघट पर सुनता था,
पानी भरती कंगनों को
छनकती पायल में अंगनों को..।।
चिहुंक उठता था मैं,
गाँव की मुख्य सड़क पर,
ऊँची अटारी पर,
कभी-कभार, दिखता
................'लहराता',
.............एक  'साया' ।।
और….........
होती थी स्पंदन,
मुझमें ............
गाँव में दिखती,
हाथ-भर के घुँघटों में,
छिपी, अनदिखी,
................चेहरों में।
पर, नहीं है यहाँ, 
कोई स्पंदन, कोई स्फुरन,
कोई उद्दीपन,कोई कंपन,
स्वप्नलोक-सी, परियों में....,
शीशे-सी, चमचमाती दुनियाँ में।।
सोचता हूँ...!
क्यों नहीं है......?
वह गुदगुदाहट, वह सरसराहट,
वह झनझनाहट,वह सनसनाहट,
यहाँ की,अधनंगी, जवां और खुबसूरत
................मैमों में।
D T C  की, ...... बसों में।

D T C  की,...... बसों में।।


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राजनीति के अवमूल्यन से, पूरा देश शर्मसार है।
हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई, सब तार-तार है।।
धधक उठा होटल ताज, घायल ओबेरॉय है।
झुलस गया नरीमन, जो भारत का शृंगार  है।।
वीरों की शहादत को देश का सलाम है।
इनके लिए हर आँखें नम, दिल से चीत्कार है।।
शहीदों ने गोली खाई, देश की लाज बचाई
वाक-वीर नेताओं ने शब्द-वाण चलाया।
बेटे को सीने पर गोली, बाप को मिला गाली उपहार है।
वोट की राजनीति से पूरा देश शर्मसार है।।

कोई कहता अलग मराठा और बिहार है।

राजनीति में बचा, बस यही चरित्र व व्यवहार है।।
आतंकवाद से भिड़ने को जनमानस तैयार  है।
मक्कार नेताओं के लिए, यह चुनावी हथियार है।।
देश की संसद पर चोट खाकर भी, हम चुप रहे।
अब भी खामोश यह निक्कमी सरकार है।।
पाकिस्तान का छद्म-युद्ध, देश को ललकार है।
अब भी पौरुष नहीं जगा तो, इस पौरुष को धिक्कार है।।
आतंकियों को सबक सिखाने का माहौल तैयार है।
पाकिस्तान से हो जाये, अबकी आर-पार है।।
वोट की राजनीति से पूरा देश शर्मसार है।
हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई सब तार-तार है।।



**************************************

दरिया को सागर में मिलने से, रोक कौन सका है।
बाँध दो चाहे कितने बंधन, दरिया तोड़ बहा है।।
दरिया है बेताब मगर, सागर कहाँ अचल है।
सागर के लहरों का भी, ज्वार बड़ा प्रबल है।।
दरिया को आलिंगन करने, सागर बाँह फैलता है।
पूनम-अमावस में, प्रणय-विभोर 
जब सागर मतवाला होता है।।
मैं हिम पुत्री हूँ, सागर मेरा अभिष्ट है।
मैं अजस्र धारा हूँ, मिलन हमारा शाश्वत है।।
कैद करोगे कबतक मुझको, क्षुद्र बांध-बराजों से।
तोड़ बहूंगी जब मैं चाहूँ, अपने कूल-किनारों से।।

मुझमें विशाल पर्वतों का धैर्य, घाटी-सी गहराई भी।
मेरे ऊर में बहती है, पूर्वजों की थाती भी।।
मधुर-शीतल जल मैं देती, आँसू खुद पी जाती हूँ।
अपने बच्चों के लालन को, कैद में रह जाती हूँ।।
मेरे होंठों की लाली, काजल अभी सुरक्षित है।
जैसे मैं अधूरी हूँ, सागर भी तो वंचित है।।
आँसूओं को पीकर, सागर खारा बन जाता है।
प्रलयकाल में प्रियतम मेरे, कालजयी कहलाता है।।
दरिया को सागर में मिलने से, रोक कौन सका है।
बाँध दो चाहे कितने बंधन, दरिया तोड़ बहा है।।
दरिया है बेताब मगर, सागर कहाँ अचल है।
सागर के लहरों का भी, ज्वार बड़ा प्रबल है।।
दरिया को आलिंगन करने, सागर बाँह फैलता है।
पूनम-अमावस में प्रणय-विभोर जब सागर मतवाला होता है।।

हाल-ए-दिल..!

लोग पूछे हाल ए दिल तो मुस्कुराइए..।
दर्द को दिल ही में बसाइये..,
लोग पूछे हाल ए दिल तो मुस्कुराइए..।।
जब भी दिल मचले तुम्हारा,
बागवां में अकेले जाइए.।
दर्द को दिल ही में बसाइये..।।
मत करें,  कमजोर ये दिल,
न कभी घबराइये..।
लोग पूछे हाल ए दिल तो मुस्कुराइए..।
दर्द को दिल ही में बसाइये..।।
वक़्त हर मर्ज़ की दवा है,
बस वक़्त को पहचानिये..।
लोग पूछे हाल ए दिल तो मुस्कुराइए..।
दर्द को दिल ही में बसाइये..!!
जब भी रोने को, जी हो
ख़ुदा की बंदगी गाइये।
लोग पूछे हाल ए दिल तो मुस्कुराइए..।
दर्द को दिल ही में बसाइये..।।
हँसते-हँसते लोगों से मिलिए
गम को दिल में छुपाइये।
लोग पूछे हाल ए दिल तो मुस्कुराइए..।
दर्द को दिल ही में बसाइये..।। 


**********************


मेरे भी दिन लौटने लगे हैं..!

मुरझाये फूल खिलने लगे हैं..!
नई कोंपले निकलने लगी है..,
बाग में पक्षी, चहकने लगी है..!
लगता है जिंदगी ने फिर पलट कर देखा है..,
मेरी जिंदगी की जो इकलौती रेखा है..!!
वरना यह जिंदगी थी, वीरान,
जिंदगी मानो बनी श्मशा..!!
अब मेरी बगिया में कोयल कुँजने लगी है..!
गौरैये भी घोंसले बनाने लगी है..!!
गुजरे वक्त ने कई मंज़र देखे हैं..!
पतझड़-सा जीवन, बिखरते देखे हैं..!
पुनः बसंत दस्तक देने लगी है..!
कुम्हलाई कवली, मुस्कुराने लगी है..!!
फूलों की खुशबू महकने लगी है..!
जीवन की नैया बहकने लगी है..!!
मन हिलोरें ले, चहकने लगा है..!
अरमां पंख लगा, उड़ने लगा है..!!
मेरे भी दिन लौटने लगे हैं..!
मुरझाये फूल, खिलने लगे हैं..!!




***********************


मैं जमींदार हूँ...!

पता नहीं यह जमीं किसकी..?
बाप की, दादा की या उसके बाप की..!
पर, मैं जमींदार हूँ...!
पता नहीं इस जमीं को गंगा ने बसाया..?
या अपरदित पर्वतों ने,
इसकी कोई सीमा भी नहीं..!
ऊपर भी नहीं, नीचे भी नहीं..!
पर, मैं जमींदार हूँ।
न शरीर में धूल, न आँगन में माटी,
पर फसलों का, मैं मालिक..!
क्योंकि, मैं जमींदार हूँ..!
भावातिरेक में, जब भी--
मैंने अपनी गठरी खोलनी चाही,
लोगों ने बाँध दिया..!
क्योंकि, मैं जमींदार हूँ..!!
मैं जमींदार हूँ..!!










********************


मैं कोई साहित्यकार नहीं, 

कथाकार नहीं, चित्रकार नहीं..।
पर इतना तो स्पष्ट है, 21वीं सदी की 
दहलीज पर पैदा हुआ,
अम्बेसडर कार की तरह बेकार नहीं..।।
कभी-कभी तेल ही नहीं, 
बिना बिजली-पानी  के भी झेल लेता हूँ..।
गुलाब की प्रत्याशा में,
गेहूँ की सुगंध से जिंदगी ठेल लेता हूँ..।।
अब सब्जियाँ जलती नहीं,
क्योंकि तेल में में तलती नहीं..।
हम शुद्ध शाकाहारी हो गए, 
लहसुन-प्याज तक मिलती नहीं..।।
जनता तो जनता सरकार तक रोती है..।
संसद में झगड़ा, पति-पत्नियों सी होती है..!
खुन्नशे दूर करने में लगे हैं,
हर मुखिया सरकार का..।
बिदक जाये ना महबूब कहीं,
नई-नवेली इकरार का।।
वो भी इल्जाम लगाने लगी है, 
क्यों रोज नए रिश्ते बनाते हो।
हमने ख़िजकर कहा--- 

सरकार गिर न जाये, तुम्ही तो धमकाती हो..।।
भाई औरत की बेवफाई पर शक नहीं करना..। 
चाहे तेल-डीजल हो या रेल दे देना..।।
पता नहीं, वो सबेरे किस मूड में आ जाये..।
श्रीमति जी ! किसी और के साथ 
सरकार बनाये..।।
टूटता तिलस्म भ्रष्टाचार का, 
ढहता लालकिला सदाचार का,
फिक्र है सबको पापड़-आचार का..।
क्यूँ कर खिचड़ी अब रोचक नहीं लगती...।
पके चावल की , चर्चा नहीं होती..।।
चर्चा होती नहीं,अब गरीबों के पेट का..।
शिक्षा-चिकित्सा या परीक्षा के डेट का..।।
चर्चा का विषय है, अगले एपिसोड में, 
कौन नेता करने वाले है, 
घोटाला इंडिया गेट का।

घोटाला इंडिया गेट का।।


आरोप-प्रत्यारोप

आप लिखने वाले हैं, जो चाहते हैं लिख लेते है..! 
बेवजह आरोप-प्रत्यारोप, मुझ पर क्यों लगाते हैं..??
मैं जो करती हूँ लिखते हैं, जो न करती हूँ लिखते हैं..!
मेरे अंदर के भावों को, खुद के हिसाब से लिखते हैं..!! 
न तरकश लेकर चलती हूँ, न निगाहें तीर चलाती है..!
खुद ठोकर खाकर गिरते हैं, मुझपर इल्जाम लगाते हैं..??
मुझमें भी दिल है, मैं भी सपने बुनती हूँ..!
मुझमें भी स्पंदन है, मैं भी अरमां सजाती हूँ..!!
लिखने वाले आप, शब्दों में रो लेते हैं..!
पीते-पीते आप, मयखानों में सो लेते हैं..!!
मैं न सोती हूँ - न रोती हूँ, अंदर-अंदर घुटती हूँ..!
आप भले मुहब्बत करते होंगे, मैं भी ताजमहल बनाती हूँ..!!
नारी हूँ, कोमल हृदय हूँ, मुझ पर कलम चलाते हैं..!
गर दिलेर कवि हैं, तो क्यों नहीं हिटलर को विषय बनाते हैं..??
आप लिखने वाले हैं, जो चाहते हैं.... लिख लेते हैं..!
बेवजह आरोप-प्रत्यारोप, मुझपर क्यों लगाते हैं..??
न तरकश लेकर चलती हूँ, न निगाहें तीर चलाती है..!

खुद ठोकर खाकर गिरते हैं, मुझपर इल्जाम लगाते हैं..!!  

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हे केशव..! हे माधव..!!

पुनः आओ एक बार, बहाओ प्रेम की भागीरथी..।
टक रहा है युग, जरूरत है एक सारथी..।।
हर तरफ दुराचार, भ्रष्टाचार, हाहाकार,
सुनामी-सा उठता, नफ़रत की बयार..।
ढहती जा रही, राष्ट्रीयता की दीवार,
क्षेत्रीयता, जातीयता, उग्रवाद-आतंकवाद का चौतरफा प्रहार...।।
दिग्भ्रमित राष्ट्र, हर तख्त पर धृतराष्ट्र..।
सिंध बँटा, बंगाल बंटा, क्या बंटेगा महाराष्ट्र..?
हर तरफ मानवता त्रस्त, फैली है निराशा..।
हे माधव,जन को दो-जीवन की आशा...।।
शील लूटता पाश्चात्य सभ्यता, बनकर नित दुःशासन..।
घोटालों का खेल, मूक हो-- देख रहा है शासन..।।
अन्याय की पराकाष्ठा, संकेत नए महाभारत का..।
घोर तिमिर दूर करो, शुरुआत हो धर्म-स्थापन का..।।
हे केशव..! हे माधव...!!
पुनः आओ एक बार, बहाओ प्रेम की भागीरथी..।
टक रहा है युग, जरूरत है एक सारथी..।।
टक रहा है युग, जरूरत है एक सारथी..।।

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चाँद-सूरज..!


चाँद की शीतल कपोल पर 

धधकता सूरज-सा अधर।
उन्मुक्त निशा, मदहोश होकर
पिघल रही है, ओस बनकर।।
चाँद की शीतल कपोल पर 
धधकता सूरज-सा अधर।
चाँद की शीतल कपोल पर 
धधकता सूरज-सा अधर।
उन्मुक्त निशा, मदहोश होकर
पिघल रही है, ओस बनकर।।
उलझी लटें, निस्तेज किरणें।
श्रीहीन मुख, बिखरे हैं--धरती पर गहने।।
हल्की सुबहें, ताजी धूप
खिल उठा, दिवस का रूप।
क्या लुटा, किसने लूटा 
दुबकी निशा, क्यों है चुप।।
चाँद सजा पुनः दुल्हन-सी
शृंगार यही है, जीवन की।
सजता है जीवन, लूटने को
सपने बुनते हैं, टूटने  को ।।
निशा जब आँचल फैलाती है
तारों की बारात आती है।
सुरमई आँखों की चमक
दूध-सी धरती कर जाती है।।
खिल उठती है कुमुदनी।
मलयज मद में रागिनी।।
चाँद की शीतल कपोल पर
धधकता सूरज-सा अधर।
उन्मुक्त निशा, मदहोश होकर
पिघल रही है, ओस बनकर।।

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साहिबगंज:- 20/08/2018.

अंतर-व्यथा..!

आज, माँ ने पायी
सुबह-सुबह एक चिट्ठी, दीदी की
लेकिन उनकी आँखों में 
नहीं थी कोई चमक,
चेहरे पर कोई ख़ुशी।
चेहरे का बुझापन...
दे रहा था संकेत,
किसी मानसिक क्लेश का
या घोर शारीरिक प्रताड़ना का।
शहर से दीदी ने लिखा था...
माँ मैंने जीत लिया है..."ब्यूटी-कॉन्टेस्ट"
अब मिल जाएगी तुम्हें
जिंदगी भर की रेस्ट
जल्द ही बन जाउंगी, मैं
एक खूबसूरत मॉडल
हमारे पास होगा 'नेम-फेम'
दुनियां भर की शोहरत, पैसा-बंगला और गाड़ी।
तुम्हारी सेवा करने को, बहुत से नौकर-चाकर
और पप्पू की पढ़ाई के लिए, ऊंची फीस।
लेकिन माँ थी सन्न,
माँ सुबक रही थी किसी कोने में 
कह रही थी...
बेटी तू तब अच्छी थी
जब ले जाती थी तू
अपने ब्याह में, घर का सबकुछ
एक ही झटके में,
पिता के जीवन भर की कमाई
पप्पू की जमा की गई 
गुल्लक की पाई-पाई।।
लेकिन आज ले जाएगी तू
घर की इज्ज़त, मान-मर्यादा
और करेगी मातृत्व का सौदा।।
मिलकर विदेशी कंपनियों से
बेचेगी तू साबुन-तेल
मिलेगा तुम्हारी देह को,
एक बाज़ार।
और छोड़ जाएगी तू,
एक आदर्श
शरीरवाद का।
शरीरवाद का।

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साहिबगंज:- 09/08/2018.

दरार..!

फिरकापरस्ती का यह आलम देखो,
इंसान हुआ हिन्दू-मुसलमान देखो..।
आपस में भी बँटे, सभी जात-उपजात,
अगड़े-पिछड़ों की बढ़ती, खाईयाँ देखो..।
विवेक और शीलता हुई नष्ट,
नित समाज में फैलती, पशुता देखो..।
लूट-खसोट से खुलता सेंसेक्स,
नरसंहार की, लिस्ट में ऊंचाईयाँ देखो..।
चिथड़ों में लिपटी है, ईश्क व मुहब्बत,
झाँकती अंगों की अंगड़ाईयाँ देखो..।
बंधुत्व और त्याग की फटेहाल हालात, 
बिगड़ी हुई इसकी तरुणाईयाँ देखो..।
शर्म भी शर्मसार हुआ, ऐसा इंसान हुआ,
दुधमुंही बेटियां भी हो रही हवश का शिकार, निरंतर देखो।
फूल व कलम, अप्रासंगिक हुए,
हर हाथ में चमकता खंजर देखो..।
फिरकापरस्ती का यह आलम देखो,
इंसान हुआ हिन्दू-मुसलमान देखो..।
आपस में भी बँटे, सभी जात-उपजात,
अगड़े-पिछड़ों की बढ़ती, खाईयाँ देखो..।

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साहिबगंज:- 12/07/2018.

कोई पत्ता तो हिले, कुछ पता तो चले।

कोई पत्ता तो हिले, कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, अंदाजा तो लगे।
बयार कितनी भी हो तूफानी, अब पत्ता नहीं हिलता।
हर घर है फूस का, पर डर नहीं लगता।।
कोई पत्ता तो हिले, कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, अंदाजा तो लगे।
सत्य कितना भी कुचला जाय, अब सत्ता नहीं हिलता।
हर मुखौटा भ्रष्ट है, अब न्याय नहीं मिलता।।
कोई पत्ता तो हिले, कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, अंदाजा तो लगे।
संविधान कितना भी चुस्त हो, जुर्म रुक नहीं सकता।
जो सत्य पर अडिग हो, अब टिक नहीं सकता।।
राजनीति के इस माहौल में, कोई सिद्धान्त नहीं दिखता।
सत्ता के गलियारों में न जाने कौन-कौन सी नित खिचड़ी है पकता।।
समाज को वर्गों में बांटकर बेखौफ है सत्ता।
वरना यहाँ, अच्छे-अच्छे अटल भी; टलते है दिखता।।
कोई पत्ता तो हिले, कुछ पता तो चले।
आएगी बयार किधर से, अंदाजा तो लगे।

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खुशियाँ...

छूटती जाती है, कलाई, टूटते जाते है, ख्वाब ।
सोचता हूँ हक़ीक़त, क्यों होती है, इतनी हाजिर जबाब।।
वो आती है, बसंती झोकों की तरह
झकझोर जाती है मदमस्त शाकी की तरह
नहा जाता हूँ, उनकी भीनी खुशबुओं में,
सराबोर हो जाता हूँ, रंग-रेलियों में।
दूसरे ही पल, सब कुछ वीरान 
जिंदगी के पास, फटकती श्मशान।
नयनों में नींद नहीं, चित्त में चैन नहीं
अपने भी लगते हैं , बिल्कुल अंजान।।
न किसी के आने की दस्तक 
न किसी के जाने का आहट।
बदला क्या? क्या परिवर्तन?
चुभने लगी, अब फगुनाहट।
शायद, खुशियों में ठहराव नहीं, 
या मैं, इसका पड़ाव नहीं।
कहीं--फ़ितरत तो नहीं, बेवफाई इसकी.........
एक आवाज आती है..!
क्युं टूटते हो, क्यों छूटते हो ?
कंकरीला राह है तो, खूब चीखते हो।
बिछ जाती हूँ, जब जिंदगी में तेरी
तब तो मजा, खूब लूटते हो।।

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मैं टूट कर प्रतिदिन, जाता हूं बिखर..।
अगली सुबह, खुद को जोड़ता हूँ चुनकर..।।
इकट्ठा करता हूँ.., अपना हाथ-पैर, सिर-धड़..।
गतिशील भी होता हूँ, पुनःहो जाता हूँ जड़..।।
इस दिनचर्या से, मैं ही नहीं, हर गरीब गुज़रता है..।
अपनी रोटी के लिये, खुद को ही चक्की में पीसता है....।।
पिसता मजदूर और किसान..।
मध्यम वर्ग की यही पहचान..।।
छीन गए निवाले, कहते हो खाद्य सुरक्षा बिल..।
ऐसे तरकीब निकाले, मानो- हमें जायेंगे लील...।।
विश्वास है अगली पीढ़ी तक, हम टिक पाएंगे...।
भले ही देखकर ही--"चावल-दाल", हम भूख मिटायेंगे..।।
सदी के अंत तक GDP ग्रोथ, इस कदर बढ़ जाएगा..।
विश्व-पटल से, गरीब नामक जीव मिट जाएगा..।
पूँजीवाद का ऐसा साम्राज्य छाएगा..।।
इनके इशारों से उगेगा सूरज और डूब जाएगा..।
रात-दिन, स्त्री-पुरूष व जानवर-आदमी का फ़र्क मिट जाएगा..।।
मर जायेगी हमारी संस्कृति-परंपराएं और विरासत..।
बचेगा सिर्फ दिशाहीन समाज और विधर्मी सियासत..।।

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साहिबगंज -28/03/2018 

चुनावी दौर है, आचार संहिता का माहौल है।

अशर्फी की लूट में, मुहर हेतु अलग-अलग छाप है।।
हर उम्मीदवार जुझारू-कर्मठ, आदर्शवादी व चरित्रवान नजर आ रहे हैं।
गली-मोहल्लों में कतारबद्ध हो अपनी-अपनी एक-दूसरे से पहचान बता रहे हैं।।
पुनः उनकी भोली बातों में फँसा जा रहा हूँ।
उनके साथ न जाने क्यों , मैं भी उनकी प्रशंसा किये जा रहा हूँ।
हर दल के नेता अपनी-अपनी विजय पताका बाँट रहे थे।
मैंने भी भविष्य के काम की चीज समझकर ले ली।
समस्या थी इसे फहराने की, मुझे कुछ न सूझा।
मैंने सभी को एक ही डंडे में बांध, खुले गगन में लहरा दिया।
सभी इसे अचंभे से देख रहे थे, मैं भी अपनी बुद्धिमानी पर खुश हो रहा था।
देखा इलेक्शन के दिन बैलेट पेपर पर , सभी अपनों के ही निशान थे।
मार दिया सभी पे मुहर, क्योंकि हम इंसान थे।।

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साहिबगंज 15/01/2018.

मुल्क बदनाम हो रहा था!

तुम गौरव बता रहे थे।
भाई-भाई के दिल में,
नफ़रत की लकीरें बना रहे थे।
न मंदिर बना रहे थे! 
न मस्जिद बना रहे थे!
सिर्फ सियासत के ख़ातिर,
इतिहास-भूगोल बदल रहे थे।।
बहुत बार बँट चुका हूँ,
अब दिलों को न बाँटो।
कबीर को न बाँटो, 
रहीम को न बाँटो।।
बाँटना है तो इंसानियत बाँटो,
दुःख-दर्द बाँटो।
प्यार-मुहब्बत बाँटो,
जज़्बात बाँटो।।
ऐ इंसा! सच बता ....
क्या मजहब का तूने मर्म जाना ?
बनारस का भोर-लखनऊ की शाम का कद्र जाना ?
राम-रहीम के संदेश को ,
वाकई क्या पहचाना?
मंदिर-मस्जिद को ऊँचे तो चुनवा डाले, 
प्रेम क्यों हुआ बौना ?
शंख औ अजां की ध्वनि,
एक साथ बतलाती है।
विश्वभर को "बंधुत्व" का भाव,
यह समझाती है।।
हिन्दू-मुसलमां दोनों, 
एक साथ जगते हैं।
अपने पौरुष के बल,
देश को गढ़ते हैं।।
इस अरमाँ से हमलोग आगे बढ़ते हैं।
भारत पुनः 'विश्वगुरु' हो, 
प्रयत्न यही करते हैं।।
मुल्क बदनाम हो रहा था, 
तुम गौरव बता रहे थे।
भाई-भाई के दिल में,
नफ़रत की लकीरें बना रहे थे।
न मंदिर बना रहे थे,
न मस्जिद बना रहे थे..।
" मुल्क बदनाम हो रहा था...कविता पाठ करते कवि आनंद अमन का विडियो देखने के लिए निचे👇क्लिक करें..!  

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साहिबगंज 14/01/2018.

अपनी व्यथा

अपनी ही तस्वीर से घबराने लगा हूँ।
जिंदगी की वसूलों से कतराने लगा हूँ।।
सिद्धान्तों से समझौता, आखिर कब तक
अपनी जमीर से ही, पीछा छुड़ाने लगा हूँ।
सच्चाई और नीति के रास्ते, इतने कठिन न थे। 
जितनी तेजी से ईमान से, डगमगाने  लगा हूँ।।
अपनी ही तस्वीर से घबराने लगा हूँ।
जिंदगी की वसूलों से कतराने लगा हूँ।।
चंद सिक्कों में क्या बात थी? न मालूम।
पूरी जिंदगी को दाँव पे लगाने लगा हूँ।।
ख्वाब चूर हो गए, अपने अलग वज़ूद की।
दुनियाँ के साथ चलने का, साहस जुटाने लगा हूँ।
अपनी ही तस्वीर से घबराने लगा हूँ।
जिंदगी की वसूलों से कतराने लगा हूँ।।
कोई पापी त्याज्य नहीं, यही समझकर 
मानवतावाद का नारा, बुलंद करने लगा हूँ।।
कोई बहाना नहीं,हम लाचार थे-बीमार थे।
शौक से ही खुद को, डूबोने लगा हूँ।।
जिसे समझा था हमने, समाज का आदर्श 
उसे ही देखकर, शरमाने लगा हूँ।।
क्यों खोदने पर तुले हो, दूसरे का खोखलापन।
खुद के खोखलेपन से ही,  तड़पने लगा हूँ।।
मंदिर का रास्ता तो, अब बंद हुआ शाकी।
मयखाना, कभी-कभी जाने लगा हूँ।।
जमीर कहती है--- हमने देखा ही था क्यों इस ओर ।
घबराकर, दुनियाँ को ही दोष देने लगा हूँ।। 
अपनी ही तस्वीर से घबराने लगा हूँ।
जिंदगी की वसूलों से कतराने लगा हूँ।।

**********************************************-

सिमटते-सिमटते सिमट गया
यह देश क्यूँ बदनसीबी से लिपट गया ?
जब हम भूखों मर रहे थे !
ये नेतागण भूख को मिटाने के वादे से पलट गया !
हमने वोट दिया अपने को दाने-दाने को तरसाने को। 
उसने सौगात समझ ले लिया दावतें उड़ाने को !
देखा, इस सर्दी में मरी पड़ी 
कितनी जवां और बूढ़ी हड्डियों को।
चले आये सहानुभूति दिखाने वो 
तोंद पे हाथ फेरते, कफ़न बाँटने को।।
जो बचे है उन्हें ईश्वर का दया समझ के।
दर्द दिखाने आए वोट बैंक समझ के।।
हम बरसात में घुटने तक धँसकर चलते है
पर जहाँ फंसती थी, उनकी मारुती का चक्का। 
हम तो आज भी अभ्यस्त है, अपनी बदहाली से। 
पर उनके घर तक का सड़क है जरूर पक्का।।
अरे! वे क्या हमारी भूख मिटाएंगे ?
बस जो चले तो देश की कड़ाही में जनता को भूनकर खा जायेंगे।।
तजुर्बे के अनुसार ओहदे बढ़ते जाते है।
आज जो हत्यारा-खूनी है, कल के नेता हो जाते है।।
पता नहीं ये हैं, किस वंश के।
रावण के रिश्तेदार हैं या वंशज है कंस के।।
पर जो भी हो जनता-जनार्दन के मामा कहलाते हैं।
मानो-न- मानो, खुद को भगवान बताते है।।

************
बिखरते सपने

मखमली लिहाफ़ का गर्म अहसास

जिजीविषा को पुष्ट करती हर सांस
कि, जग में मेरा भी होगा, कोई एक-कोना
आनन्दित हो रही थी, देख जीवन का सपना।।
गर्म हो रही थी मैं, मां के ममत्व में
जीवंत हो रहे थे, मेरे अंदर के सपने।
पर मुझे क्या पता था, यह अर्धरात्रि के सपने
पौ फटते ही, जिसे थे----बिखरने।।
मैं नहीं दे सकती थी, पिता की तरह बांग
पितृसत्तात्मक समाज में , मेरी नहीं थी--- मांग
मैं थी इस सभ्य समाज की एक शालीन बोझ ।
इसलिये मेरी बहनें गर्भ में ही मार दी जाती है रोज।।
सुबह होने ही वाली थी, पौ फटने ही वाला था
मेरी जिंदगी की कहानी, समाप्त होने ही वाली थी।
पर, मैं अपनी जिजीविषा रोक नहीं पा रही थी
जबकि मेरी हत्या की साज़िश रची जा चुकी थी।।
भाई की तरह मैं नहीं देख पाई --- सुबह का सूरज
नेरे नसीब में नहीं था ---- कोई गोधूलि शाम।
मेरा फुदकना सपनों में ही कैद हो गया
मेरी आंखें सदा के लिये, चिरनिद्रा में सो गयी।।
मैं चीखती रही..….......माँ
कातर नज़रों से निर्निमेष निहारती रही,
टूटती सांसों के साथ --- सिसकती रही।
आर्त हृदय से चीत्कार करती रही।।
माँ, मुझे भी दो मौका अपने बुढ़ापे की लाठी बनने का
मुझपर भी करो भरोसा, एक इबारत लिखने का।
मेरे ही कन्धे पर तो था, खानदान की इज्ज़त का जुआ
आख़िर मुझ बेटी से ही , यह समाज इतना निष्ठुर क्यों हुआ।।
आख़िर मुझ बेटी से ही , यह समाज इतना निष्ठुर क्यों हुआ।। 
आख़िर मुझ बेटी से ही , यह समाज इतना निष्ठुर क्यों हुआ...!  


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16 दिसंबर 2012 को घटी निर्भया👧बलात्कार कांड को समर्पित..!

बलात्कार



सौंदर्य पिपाशु चितवन, जिसे निहारता था कभी
हवश के दरिंदों ने, उन उरेजों को ही काट डाला।
छिन्न-भिन्न हो गई, प्रकृति की संपूर्ण काया
दिल्ली की सड़क पर हवश का शिकार, नहीं बची निर्भया।।

चलती बसों-मॉलों-थियेटरों में रोज़ मरती है माया।
क्लबों-बारों व होटलों की दुधिया लाईट में
विदेशी धुन पर थिरकती, डेलाइट में।
रोज़ उघड़ती है, न जाने कितनी काया।।
बलात्कार के लिए, अब अंधेरों की जरूरत नहीं
खौफ-अत्याचार के लिए, जानवरों की जरूरत नहीं।
इंसान तो अंधेरों में छिप गए है, जानवर अब शहर में आ गए है।
ये सभ्य समाज में बेख़ौफ़ घूम रहे हैं, क्योंकि जंगल सारे कट गए हैं।।
कट गए पहाड़, सूख गए झरने
पानी-हवा के लिये, इंसान लगे लड़ने।
सावधान मनुष्य!अब भी संभल जाओ
एक-एक पशु-पक्षियों को बचाओ।।
वरना तुम इंश्योरेंस कराते रह जाओगे।
क्लेम से पहले विथ नॉमनी सेटलमेंट हो जाओगे।।
अर्थवादी युग की ऐसी है माया
हमने प्रकृति की गोद छोड़, फ्लैट संस्कृति लाया।
शुद्ध हवा के बदले, घरों में A.C., फ्रिज लगवाया।।
परिणामतः मानसिक-शारीरिक क्षमता हुई विनष्ट।
प्रत्येक मनुष्य झेल रहे है अगणित कष्ट।
बेबस निगाहों से देखता हूँ, 
हमने अपना जीवन अपने हाथों गवांया।।
सौंदर्य पिपाशु चितवन, जिसे निहारता था कभी
हवश के दरिंदों ने, उन उरेजों को ही काट डाला।
छिन्न-भिन्न हो गई, प्रकृति की संपूर्ण काया
दिल्ली की सड़क पर हवश का शिकार, नहीं बची निर्भया।।

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लोग कहते हैं, जिंदगी जीने का नाम है।
मैं कहता हूँ, जिंदगी पीने का नाम है।।
यहाँ हर कोई खाने-खिलाने में है मस्त।
घोटालों की शृंखला से, देश है ---पस्त।।

"राजनीति", भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाने का नाम है।।
भ्रष्टाचार की बह रही है ---गङ्गा।
राजनीतिज्ञों का चरित्र, हो गया नंगा।।
"नौकरशाह", जहाँ अवसर मिला,
वहीं लूट लेने का नाम है।।


चहुँओर निराशा, कुंठित जनजीवन।
घनघोर तिमिर, विक्षिप्त है जन-गण।।
तड़प रही है भूखी जनता, पूंजीपति हैं मालामाल
गरीबों की किस्मत है लूटी, नित हो रहे कंगाल।
"आम-जनता" सिर्फ चिल्लाने व खिजलाने  का नाम है।।



लोग कहते हैं, जिंदगी जीने का नाम है।






मैं कहता हूँ, जिंदगी पीने का नाम है।।


"पीना", जिंदगी के हर गम भूल जाने का नाम है।


अन्यथा नित किसान-मजदूर को
'आत्महत्या' कर गुजर जाने का नाम है।।


लोग कहते हैं, जिंदगी जीने का नाम है।


मैं कहता हूँ, जिंदगी पीने का नाम है।।







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साहिबगंज 24/08/2017  

लोकतंत्र
शाम होते ही चुनावी भाषण की तरह
मोहक, आकर्षक, कर्णप्रिय, मधुर संगीत 
कानो को छू जाता है,हमें झंकृत करता है,
हम बरबस ही आह्लादित होते हैं, ताली मार देते हैं।
आवाज़ सुनकर वे ख़ुश होते हैं, इठलाते हुए उड़ जाते हैं।।

हमें पता है इसकी पैदाईश 
झूठ, छल-प्रपंच, अत्याचार-अनाचार की गंदगी,
और रुके विकास के सड़े पानी में होता है।
शायद! इसलिये इसकी पहुंच बाथरूम से, 
पूजाघर तक होता है।।


ये चूसते हैं खून , बड़े प्यार से

मदद लेते हैं, अफ़सर-चमचे और रसूखदार से।

पहचाने जाते नहीं, धर्म-जाति या रिश्तेदार से।

सभी संतुष्ट हैं, इनकी समानता के व्यवहार से।।

सुबह होते ही अस्तित्व विहीन हो जाते हैं

मानो चुनाव जीतकर,दिल्ली चले जाते हैं।

पर इतनी भलमनसाहत तो है, इन मच्छरों में।

नेताओं की भांति, समय से पहले-बेसमय नहीं आते हैं।।

******************

साहिबगंज 22/08/2017

कदम-दर-कदम कोई लड़खड़ाता है,

बात उसकी करो जो चीर कर निकल जाता है।
चीरकर निकल जाता है--- एक सन्नाटा,
और कुचल जाती है, कितनी जिंदगियाँ।
इन जिंदगियों की दिनचर्या से अंजान
कफ़न का दाम कोई और भुनाता है।

कदम-दर-कदम कोई लड़खड़ाता है,

बात उसकी करो जो चीर कर निकल जाता है।

गरीब-निरीह बगैर जुर्म के जेल जाता है।

मुजरिम शासक बन उसको चिढ़ाता है।।
कदम-दर-कदम कोई लड़खड़ाता है,
बात उसकी करो जो चीर कर निकल जाता है।

हमारी गंदी बस्तियां,

सभ्रांत समाज को, मुँह चिढ़ाती है।

बात उस मक्खी की करो,

जो नाक पर रुमाल रख, दनदनाकर निकल जाती है।

कदम-दर-कदम कोई लड़खड़ाता है,

बात उसकी करो जो चीर कर निकल जाता है।
गुल को अनवरत टकता रहे माली,
धूम-धड़ाका उसका है, जो बुलबुल ले उड़ जाता है।

कदम-दर-कदम कोई लड़खड़ाता है,

बात उसकी करो जो चीर कर निकल जाता है।

माँ की प्रसव-पीड़ा, कोई कहाँ सुन पाता है।

खुशियाँ मनती है उसकी, जो चीर कर निकल आता है।।

कदम-दर-कदम कोई लड़खड़ाता है,

बात उसकी करो जो चीर कर निकल जाता है।

******************
साहिबगंज 28/07/2017.

जब-जब आजादी का जश्न हम मनाते हैं।

मेरे आँखों से आँसू ढलक जाते हैं।।

जानवरों की तरह लड़ पड़े थे, हम भाई-भाई।

बांटते थे जिनके साथ खुशियां व ग़म,

उसके साथ हमने कैसी यारी है निभाई।।

हम जिन्हें बांहों में भरकर, ईद मुबारक़ देते थे।

अफ्तारी व सेवइयों की, खूब लुफ्त उठाते थे।।

मजहब के नाम पर यह मिठास, क्यों फ़ीकी कर ली।

दुनियाँ में था जो मिसाल-ए-मुहब्बत, क्यों बदनामी कर ली।।


जब-जब आजादी का जश्न हम मनाते हैं।

गंगा-जमुना की संस्कृति को, हमने न पहचाना,

लीगी क्या समझे? हम हिन्दुस्तां में जन्नत -सा लुफ़्त उठाते हैं।

जब-जब आजादी का जश्न हम मनाते हैं।

मेरे आँखों से आँसू ढलक जाते हैं।।


दो राष्ट्र के विषय को, कैसे हमने सही माना।

क्या एक पेड़ में, अलग-अलग फूल खिलते है,

रंग व खुशबू भी कहीं, गुल से ज़ुदा होते हैं।।


पाक क्या जाने?  होली-दीवाली व रमज़ान कैसे, संग मानते हैं।।


मेरे आँखों से आँसू ढलक जाते हैं।।

******************
साहिबगंज 27/07/2017

कुछ अड़े हुए, कुछ पड़े हुए
बाद बाक़ी सब सड़े हुए
प्रजातान्त्रिक मूल्य-कब्रों में है गड़े हुए
देश का विकास हो कैसे 
जाति-संप्रदाय के नाम पर 
हर कोई है लड़े हुए।
सड़ी-गली व्यवस्था में कुम्हलाते जीवन
क्षोभ-आक्रोश से कुंठित,जन-गण-मन
थकी हुई हारी आजादी
जिसमें बीत गई सदी आधी
जब आजादी का मतलब समझ नहीं आता था।
इस उत्सव में बड़ा मजा आता था।।


जब से मतलब समझ आने लगा।

उस जलेबी का रस, फीका लगने लगा।।

देखता हूँ आज भी बचपन, 

अनजाने में राष्ट्रगीत गाता है।

भले आजादी का उसे मतलब 

नहीं पता होता है।।

और वास्तव में जिसे मतलब पता होता है

उसे, राष्ट्रगीत कहाँ आता है?

राष्ट्रगीत कहाँ आता है---2

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साहिबगंज 15/07/2017

कब तक  छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज की जनता का,  शायद यही क़िस्मत है।।
गंगातट के भोले-भाले, मौजों से लड़ने वाले 
गंगा-सा निर्मल, कोमल चित्त, बैलों संग रहने वाले।

हम कृषक है सदियों के, जमीं हमारी थाती है..!
"खासमहल" कहकर इसे,क्यों? प्रशासन हमें सताती है..।।

1956 से यहाँ गंगा पर पुल बन रहा है।
कब पूरा होगा न मालुम, 50 साल बीत गया।।
कब तक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज  की जनता का, शायद यही किस्मत है।।


आँखों में आंसू आते हैं,यादकर रेल-क्रांति को। 
कितनी नृशंसता-बर्बरता से? लागु किया गया था, निषेधाज्ञा को।।
आवाज हमारी दबा दी गई, क्षुब्ध जनता खामोश हो गई।।
हम कायरों के द्वारा, शंभु की शहादत भुला दी गई।।
कब तक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज की जनता का, शायद यही किस्मत है।।

क्रांति की कोख में जन्मी बच्ची की,शायद भर गयी हो माँग।
पर 27 जुलाई 94 से अबतक, पूरी नहीं हुई, एक भी मांग।।
न कंट्रोल-रूम यहाँ आया, न विक्रमशिला ही आई।
विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय को छूने का सौभाग्य न पाई।। 
कब तक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।
साहिबगंज की जनता का, शायद यही किस्मत है।।

न कोई कारखाने लगे, दोहरीकरण पूरा न हुआ।

94 की क्रांति में, संभवतः प्रेम हमारा पूरा न हुआ।। 

पुनः एकबार जागना होगा, अपनी ताकत दिखाना होगा।

सिंधु की गहराई में, दृढ़ निश्चयी हो कूदना होगा।।

कबतक छलोगे, छलना तो तुम्हारी फ़ितरत है।

साहिबगंज की जनता का, शायद यही किस्मत है।⁠⁠⁠⁠

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साहिबगंज 12/06/2017.

ऐसा डूबा चाँद, अब तक दीद नहीं।
वर्षों गुज़र गए, महफ़िल में ईद नहीं।।
हर रोज़ रोज़ा है यहां, सुरूर निराली है।
मयखाने में भोर हुई, हर शाम दिवाली है।।
हर वक़्त सज़दे में , यह नमाजी है।।
अफ्तारी में मय है, साथ प्याली है।।
दीदार करूँगा कब, यह मुफ़ीद नहीं।
कितना लम्बा रमजान, देखूंगा जिद्द यही।।
ऐसा डूबा चाँद, अबतक दीद नहीं।
वर्षों गुज़र गए, महफ़िल में ईद नहीं।।
निकलेगा चाँद इक रोज, दिल में उम्मीद यही।
इसी आश में जिये जाते हैं, मनाएंगे ईद कभी।।
ये तमन्ना होगी पूरी, होंगे चश्मदीद सभी।
मिठास सेवइयों की, और बाटूँगा ईदी भी।।

ऐसा डूबा चाँद, अबतक दीद नहीं।
वर्षों गुज़र गए, महफ़िल में ईद नहीं।।   

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साहिबगंज 08/06/2017.

बेटी



कभी-कभार दीखती हो तुम 
डेढ़-दो फीट के झरोखे से झांकती कैदी की तरह।
औरो की नजरों से बचते-बचाते 
नज़रों की तपीश बुझाते निकल जाता हूँ, 
मुलाकाती की तरह।
तुम देखती हो, इन झरोखों सेअपना संपूर्ण संसार,
पर यह संसार बिलकुल अधूरा है, तुम्हारी तरह।।
शायद! बेटी एक जिह्वा है जिसे हमने कैद कर रखा है 
सुसज्जित दंत-पंक्तियों के भीतर जबड़ों के बीच,
पिटारी में बंद सापिन की तरह।
नहीं-नहीं, बेटी तो आरती है निरंतर जलती है !
मंदिर के दीप की, बाती की तरह
हमने समझाया है सदैव उसे,
कर्तव्यों की भाषा।
यह भी बताया है उसे,
कि कभी अधिकार की बात न करना भी
उसका कर्तव्य है।
उसे जीना है, बस एक दासी की तरह।।
बेटी! तुम्हें तो इस खूँटे या उस खूँटे
बँध कर ही रहना है !
क्यों फड़फड़ाती हो चंचल गौरैये की तरह।
चंचल गौरैये की तरह ! 

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साहिबगंज 05/06/2017 
5 जून पर्यावरण दिवस पर विशेष अभिव्यक्ति।
चीथड़े उड़े पहाड़ों के, 
जीवन के लिए बचाना होगा।
धूल-धूसरित वन-प्रान्तरों में,
हरियाली फिर से लाना होगा।। 
राजमहल पहाड़ी का सौंदर्य, 
पुनः अब सजाना होगा।
अन्यथा उमड़ते-घुमड़ते बादलों को,
प्रतिवर्ष लौटना होगा।।
झारखंड बना, क्या इसलिये? 
पहाड़ों को खंड-खंड करना होगा।
बिखरता बादल, सूखते झरने, 
जलता सूरज-- हलकों का प्यास बुझाना होगा।।
झरनों का कलकल बंद हुआ, 
चहचहाते पक्षी बचाना होगा।
धूल-गर्द में खोती जिंदगी, 
बच्चों का बसंत बचाना होगा।।
गर बांसुरी की धुन सुननी है,
बांसों को भी होना होगा।
यूँ ही पत्थर-पहाड़ कटते रहे तो,
ऑक्सीजन की फैक्ट्री लगाना होगा।।
जंगल सारे कटते जा रहे,
वनौषधियों को बचाना होगा।
वन्य-प्राणियों को विनष्ट किया, 
खुद जानवर सा रहना होगा।।
प्रेम-सहानुभूति नष्ट हुई,
मानवों की दरिंदगी झेलना होगा।
इन पर्वत-शृंखलाओं का सौंदर्य
अक्षुण्ण रखने को यहाँ भी, 
चिपको-सा आंदोलन चलाना होगा।।
चीथड़े उड़े पहाड़ों के, 
जीवन के लिए बचाना होगा।
धूल-धूसरित वन-प्रान्तरों में,
हरियाली फिर से लाना होगा।।

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साहिबगंज 05/06/2017

5 जून पर्यावरण दिवस पर विशेष अभिव्यक्ति।

कलकल करते, गिरते झरने
दूर ऊँचाई से आते झरने।
सुंदर गीत सुनाते झरने
मीठा जल पिलाते झरने।
सनसनाती हवाओं का झोंका
खनखनाती गौओं का झुँड
चहचहाती पंक्षियों के कलरव से घुलमिल
कलकल गीत सुनाते झरने।
ऊँचे नभ से बतियाते झरने
जीवन की हरसाते झरने।
हल्के फुहार उड़ाते झरने
कुछ कहते-कहते रुक जाते झरने।।
आते झरने - जाते झरने
कोमल गीत सुनाते झरने।
हल्कों का प्यास बुझाते झरने
कलकल करते, गिरते झरने
दूर ऊँचाई से आते झरने।।


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साहिबगंज 01/06/2017

श्रीमती जी !


श्रीमती जी बनाती है------बात, भात और हालात !
हम दंभ के मारे, किससे कहें -----विवश होते हैं ! 
किस तरह, हमारे ख्यालात !
हम कहते हैं उनकी रात को रात, दिन को दिन ।
जीता हूँ, बस उनकी नसीहते गिन-गिन।।
बिगड़ जाये न कभी, वोट का मिजाज
आधी आबादी की फिक्रमंद रहता हूँ।
सर भी दबाता हूँ, पांव भी दबाता हूँ।।
फूलों की सेज़ पर, उन्हें सुलाता हूँ। 
नाज़-नखरों को उनकी, सर पे उठाये
बाँहों की झूलों में, उसको झुलाता हूँ।।
सच-सच कहता हूँ, उन्हीं की धुन आठों पहर गुनगुनाता हूँ।
किसी से कह भी देना यारों, मैं दुनियाँ से थोड़े शरमाता हूँ।।


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साहिबगंज 31/05/2017.

छुईमुई
आज भी शरमाती है,
कोई स्पर्श नहीं सह पाती है
स्पंदन मात्र से सिकुड़ जाती है।
ऐ, छुईमुई 21वीं सदी में
तू कैसे रह पाती है।।

निर्जन वन में बसती है 
ताप-जल सब सहती है 
चुपचाप, किसी कोने में दुबकी रहती है। 
ऐ, छुईमुई 21 वीं सदी में तू कैसे रह पाती है।।
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21वीं सदी में कवि
ढूंढता है श्रोता
लिखता है कम कविता।

क्रांतियाँ अब फूटती नहीं

कविताओ से,

अपने अस्तित्व की रक्षा में

हर रोज कवि करते है--

क्रांतियाँ, श्रोताओं से।।

अब कविताएँ होती नहीं ग्राम्य-जीवन पर

हाड़-मांस के मानव पर

नित-प्रतिदिन

मानवता कुचली जाती है।

कविताओं का विषय घुमने

राजभवन जाती है।

घोटालों की चर्चा का,

विज्ञापन कविता होता है।

नेताओ के चरित्र का, गिरता ग्राफ़

कवियों का प्राण होता है।।

21वीं सदी में कवि, ढूंढ़ता है श्रोता

लिखता है कम कविता।।

अब मेहबूब की गाल

लगती है प्याज की छाल।

कवियों की कल्पना में

खिली कुमुदनी फूल नहीं होती।

कवियों को दिखता है

परमाणु विस्फोट।

दिखती नहीं, इसके पीछे छिपी ।

करोड़ों दिलों की चोट।।

हे कवि महोदय!

आप कविताओं के माध्यम से

अपनी पहचान बताते हैं

फिर क्यों नहीं,

आलोचना-प्रशंसा से हटकर

अपनी विषय बनाते हैं -

अपनी विषय बनाते हैं।

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