24 जून 2019

© "बशर नवाज़"

उम्र ए सेहरा में हर चीज अब जल कर ख़ाक होती है ,
चाहे उम्मीद भी हो अब मेरी मुट्ठी में बस वो राख़ होती है।
उजड़ते जा रहे हैं आशियां अब मेरी बस्ती के ,
टूटती है जब भी लाचारी में जो अक्सर मेरी शाख़ होती है।

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गांठ..!
ताक़ रातों का क्या खूब सिला मिला है..,
अब तो जो है बस खुदा से शिकवा गिला है..।
बांध देता है हर बार वो उम्मीद की डोर..,
उस डोर में बस गिराह ही मिला है..।।

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ज़िन्दगी इतनी बदरंग क्यूं है..??
रस्ते कम और गलियां इतनी तंग क्यूं है..??
क्यूं हैं तकते एकटक ये नैना..??
इन्हें किसकी तलब है..??
है तो सब कुछ पास तेरे..,
बोल.., क्यूं बंद तेरे लब हैं..??
हां.., समझता हूं क्या ख्वाहिश है तेरी..,
तू भी शाम ओ सहर उसी में मुब्तिला है..,
मिलेगी मंज़िल क्या तुझे..,
बस तुझे इस बात का ही गिला है..।
सुन ले.., मत लड़.., हार जा.., कर ले सबर...,
रखी है किस्मत के पंजों में तेरी ज़िन्दगी "बशर"..।।
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ज़िन्दगी का इंद्रजाल..!
एक चेहरा जो बस मजबूर सा लगता है..,
कुम्हलाया और.., तपा - तपा.., तंदूर सा लगता है..।
मैंने देखी है उसकी आंखों में , बेबसी ऐसी..,
थका - हारा वो , बस मज़दूर सा लगता है..।


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बारिश......
"मतदाता, भाइयों और बहनों", आगामी 15 अप्रैल को, कंचा छाप पे बटन दबा कर, वॉर्ड पार्षद के उम्मीदवार, कमल किशोर को भारी मतों से विजयी बनाएं..!
शहर में नगर निकाय चुनाव का भारी शोर था।
हर तरफ एक से बढ़कर एक दावे और वादे किए जा रहे थे।
"राजेश, तुम्हें क्या लगता है, कौन जीतेगा हमारे वॉर्ड से ?
कामरान ने राजेश से सवालिया अंदाज़ में मुस्कुराते हुए पूछा..!
"भाई, जीते कोई भी, हारेगी बस जनता..!
इतना अविश्वास, देश के लोकतंत्र के प्रति ? कामरान ने फिर पूछा.!
"नहीं, अविश्वास लोकतंत्र पे नहीं, बल्कि इसे चलाने वालों की नीयत पे है, मेरे दोस्त।"
राजेश ने हंसते हुए जवाब दिया ।
"मेरे भाई, चुनाव की सरगर्मी खत्म होने दो पता चल जाएगा"।
तंज़ कसते हुए राजेश अपनी राह आगे चल पड़ा।
चुनावी तारीख की नजदीकियां जैसे-जैसे बढ़ रही थी, माहौल में सरगर्मी भी वैसे-वैसे ही बढ़ रही थी।
हर उम्मीदवार अपने को, दूसरे से जीता हुआ बताता फिर रहा था।
चाय की दुकानों पे चाय की चुस्कियों के साथ, राजनीति की अहम और गरम बातों का जो दौर चलता वो रात गहराने पर ही रुकता।
"बेटा, अपने घर की छप्पर थोड़ी देख लिया करो, कहीं मरम्मत की जरूरत तो नहीं "।
कामरान के पिता ने एक दिन घर में बैठे-बैठे ही कामरान से सवाल किया।
"ठीक है पिताजी, मैं देख लूंगा"।
एक कमरे के मकान में, जो कि टूटी हुई छप्पर का बना था, हर प्रत्याशी को उसमे पांच वोटर दिखते थे।
कम ओ बेश, सभी प्रत्याशियों का दबाव उस घर के हर एक व्यक्ति पे था।
"आज, जिले में नगर निकाय चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हो गया, एक दो जगह छिटपुट झड़प की घटनाएं हुईं, पर हर जगह लोगों ने खुल कर मतदान किया"।
चाय की दुकान में लगे लोकल डीटीएच कनेक्शन से टीवी पर यही न्यूज फ़्लैश हो रहा था।
हंगामों का दौर समाप्त हो चुका था, और वोटों की गिनती के बाद जीते हुए प्रत्याशियों ने निष्ठा और ईमानदारी की शपथ के बाद पदभार संभाल लिया था।
कामरान अपने दोस्त के घर पे सोया था, तभी अचानक जोरों की बिजली कड़की, वह चौंक कर जाग गया, लाइट कट चुकी थी और शहर में अंधेरा पसरा था।
खिड़की से बाहर झांकते ही उसे जोरों की बारिश का एहसास हुआ। हवा के प्रचंड झोंके ऐसे चल रहे थे जैसे आज सब कुछ समेट कर उड़ा डालेंगे।
कामरान का चेहरा कुछ फिक्र में पीला पड़ गया, मोबाइल भी स्विच ऑफ हो चुका था। ऐसे मौसम में वह अपने दोस्त के घर से बाहर नहीं निकल सकता था।
"ना जाने मेरे पीछे घर का क्या हाल हुआ हो"!
वह पूरी रात इसी चिंता में सो ना सका।
सुबह बारिश थम चुकी थी, तूफ़ान का शोर रुक चुका था।
भारी मन से कामरान अपने घर की तरफ दौड़ा। घर पहुंचने पर देखता है, के उसके खपरैल घर के एक कमरे का एक हिस्सा ध्वस्त हो चुका है। आस पास के छप्पर वाले मकानों का भी यही हाल था ।
"भैया, मेरी नई ड्रेस भीग गई। रात भर हम सब सो नहीं पाए, सारी रात बारिश ने हमारे सब्र का इम्तेहान लिया"।
कामरान की छोटी बहन रुआंसी होती हुई कहने लगी।
कामरान ने आस-पास के लोगों के घरों को देखा, और सीढ़ी उठा छप्पर पे चढ़ कर उसे ठीक करने लगा।
सभी लोग अपने-अपने भाग्य और भगवान को कोसने में लगे थे।
कामरान ने चार घंटे की कड़ी मेहनत के बाद अपने घर के छप्पर को ठीक किया।
राजेश के शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे।
चार घंटे क्या, दिन भर उस बारिश की वजह कर उजड़े घरों का हाल लेने कोई "प्रत्याशी" नहीं आया।
चौराहे पे कुछ बच्चों का ग्रुप चुनावी दिनों के लाउडस्पीकर की आवाज़ की नकल कर रहे थे, " जी हां, मतदाता भाइयों और बहनों, वॉर्ड का संपूर्ण विकास, इन्हीं के हाथों .........!

मोहम्मद हाफिज फैज़ल محمّد حافظ فیصل

चेहरे पे ग़म के आसार बैठे है
एक नही कई हज़ार बैठे है
मैं हुस्न का कायल तो नही मगर
तेरे दो नैन के आगे दिल हार बैठे है

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सियासत..!!
जी करता है मातम मनाऊँ सियासत के मज़ार पर..!
अपनों से दूरी बन जाती है लोकतंत्र के त्यौहार पर..!!
सियासी लोगों ने कैसा खेल रचा है अपनों के बीच..,
लोग उँगली उठाते फिर रहे हैं एक दूसरे के किरदार पर..!!
कोई ऐसी ख़बर दिखाओ जो बात करे उन्नति ओ विकास की..,
फ़क़त नेताओं की तस्वीर आ रही है आज कल के अखबार पर..!!
कोई अपना क़लम बेच रहा है, तो कोई अपना ज़मीर..,
फ़र्ज़ को बिकता देख रहा हुँ, खादी वालों के दरबार पर..!!
लोग मज़हब के नाम पर बंट रहे हैं, वतन की आबरू खतरे में है..,
मोहब्बत आखरी साँस ले रही है सियासत की तलवार पर..!!
कही वादे, कही नारे, कही आस, कही उम्मीदें..,
ये सारी चीज़ें झूटी है, जितनी चस्पा है दीवार पर..!!
************************* चुनावी मौसम..!
हर गली हर नुक्कड़ पे बैनर नज़र आता है..!
अजीब ये चुनावी मंज़र नज़र आता है..!!
कभी मकान भी ना मिला करते थे रहने को..,
आज हर मोड़ पर सियासी दफ्तर नज़र आता है..!
मुझ से बेहतर कोई नही, हर प्रत्याशी का नारा है..,
क़दम-क़दम पे हर कोई रहबर नज़र आता है..!
बज़ाहिर में तो कागज़ है, लेकिन है बहुत खतरनाक..,
अब परचे की शक्ल में हर हाथ मे खंज़र नज़र आता है..!
दीवारें भरी पड़ी है इंकलाब के नारों से..,
शहर में हर तरफ सियासी पोस्टर नज़र आता है..!
हर शख्स घर से निकलने में डरता है फैसल..,
सियासत का डर हर शख्स के अंदर नज़र आता है..!!

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मिर्ज़ा ग़ालिब और अमीर खुसरो के लिए..।
ये जरूरी नही के मोहब्बत हो फ़क़त अपने शहर से.,
मेरे महबूब का मसकन "दिल्ली" भी तो हो सकता है..।
मसकन=रहने की जगह..।
مرزا غالب اور امیر خسرو کے لئے،
یہ ضروری نہیں کہ محبت ہو فقط اپنے شہر سے،
مرے محبوب کا مسکن"دللی" بھی تو ہو سکتا ہے،

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पियाला-ए-मै, मेरे हाथ मे है, और मैं, मै नोश हुँ..!
साक़ी से कहो और पिलाए अभी बा होश हुँ..!
खुदा ने बनाई है दुनिया तफरीह के वास्ते सो मैं..,
निकला हुँ बाँध कर रख्त-ए-सफर,एक खाना बदोश हुँ..!
शब्दार्थ..👇!
पियाला-ए-मै = शराब का पियाला.., मै नोश = शराब पीना.., साक़ी = पिलाने वाला.., तफरीह = घूमना, सैर करना..! रख्त-ए-सफर = सफर में ले जाने वाले सामान.., ख़ाना बदोश = बे ठिकाना, बे घर..!

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मिर्ज़ा ग़ालिब और अमीर खुसरू के लिए..।
ये जरूरी नही के मोहब्बत हो फ़क़त अपने शहर से.,
मेरे महबूब का मसकन "दिल्ली" भी तो हो सकता है..।
मसकन=रहने की जगह..।
مرزا غالب اور امیر خسرو کے لئے،
یہ ضروری نہیں کہ محبت ہو فقط اپنے شہر سے،
مرے محبوب کا مسکن"دللی" بھی تو ہو سکتا ہے،
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फुरक़तों का लम्हा भी अजीब लम्हा है..,
मेरे सीने में चुभन मिस्ल ए तीर देती है..!
गरीब की आह से हमेशा बचना फैसल..,
ये वो सदा है जो आसमां चीर देती है..!
(फ़ुर्क़त=जुदाई)

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खुशी हमदम अगर होती मुझे रोने को क्या होता,
उसे अगर पा लिया होता तो फिर खोने को क्या होता..।
वो मुझ से दूर ना होती, मै उनसे दूर ना होता,
ये अनहोनी नही होती तो फिर होने को क्या होता..।
मैं जब-जब थक के रुकता हूँ तो काँधे चीख उठते है,
ये जीवन बोझ ना होता तो फिर ढ़ोने को क्या होता..।