01 दिसंबर 2019

रचना :- सुबोध कुमार झा

और भारत का दिल रोया..!
और भारत का दिल रोया..!
होने का जो था हो गया, 
एक तुफान सा आया, 
जो दर्द जगाकर चला  गया। 
था एक विचित्र संधि,
एक राजनीति हुई थी गंदी, 
जो भारत ने चीन से  किया, 
उसी के कारण भारत का दिल रोया।
हम थे निहत्थे, 
पर एक धूर्त ने चरित्र दिखाया,
धोखे से वार किया,  
और फिर भारत का दिल रोया। 
रात की विरानियों में,
निकले थे गस्त लगाने, 
हर दिन की तरह।
पर कहाँ मालूम कि
पहाड़ों की आड़ में 
बैठे हैं वो उल्लू की तरह।
सब कुछ ठीक था,
लौट चला जवान,
हर दिन की तरह।
राहें थीं सुनसान, 
अचानक बुजदिल आया, 
पीछे से वार किया, 
धूर्त लोमड़ी की तरह। 
पर उसे क्या मालूम, 
हम बिहारी हैं और 
एक बिहारी 
सब पर भारी।
तुम्हें मालूम नहीं, 
सेना में हमें बजरंगी कहते हैं, 
देश के लिए जान भी जाए,
फिर भी हँसते हैं।
अफसोस नहीं, 
हम तो मरे ,
पर दुगुने को मार गए,
देशवासियों चिंता मत करो,
देश के लिए हम जान हार गए। 
कहते हैं कि, 
शहीदों की चिता पर
अफसोस नहीं करते, 
क्योंकि वे सदा अमर हैं
कदापि नहीं हैं मरते।
पर माँ तो बस माँ होती है, 
अपने लाल की जाँ होती है। 
गमगीन हैं आँखें 
अपने लाल की शहादत को देखकर, 
मानो कह रहा है,
कि रो मत, 
लौट कर आऊँगा,
उसे सबक सिखाकर।
देखो देखो, 
यहाँ की मिट्टी लाल हो गई,
शहीदों के खून की धार से,
गूँज उठी है धरती,
पिता की माँ भारती की जयकार से।
देखो देखो 
आ गया है किसी माँ की कोख में कोई "मुन्ना" बनकर,
देखो कैसा खड़ा है "गणेश"
सीना तनकर,
चमकने लगा है क्षितिज पर, 
एक दिव्य ज्योति "कुन्दन" बनकर।
मेरी यह रचना भारत-चीन वर्तमान सीमा विवाद से उत्पन्न परिस्थिति, एक विचित्र व विवादास्पद संधि तथा इस क्षेत्र में शहीद हुए लाल गणेश, मुन्ना तथा कुन्दन की शहादत पर आधारित है। 
उपरोक्त रचना का विडियो वर्जन रचनाकार से सुनने के लिए निचे क्लिक करें..!


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कुदरत की लीला..!

कुदरत की लीला है अपरम्पार। 
सोच लो, समझ लो, इसे बारम्बार ।।

चाहो कुछ भी,पर होगा वही जो विधाता ने है गढ़ा।
भले तुम कितने भी हो महान,पर विधाता से न है बड़ा।।

कहीं धूप, कहीं छाया, यह है प्रकृति की काया ।
कहीं वर्षा, कहीं सुखा,यह है प्रभु की माया ।।


फूल बहुतेरे, कोई लाल,कोई नीला,कोई सादा,कोई पीला।
दुनिया में कोई राजा,कोई रंक,यह है कुदरत की लीला।।

कुदरत के हैं बहुतेरे रंग ।
उनकी लीला के हीं रहो संग।।

श्रम करते हुए खुशियाँ बाँटते रहिए ।
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए ।।

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लचीलापन...! 

झूक जाना, सुन लेना या मान लेना है लचीलापन, 
समय देख परखकर ढ़ल जाना हीं है लचीलापन ।
रार नहीं ठानना हीं है लचीलापन, 
सह लेना या मान लेना हीं है लचीलापन ।

विनम्रता लचीलापन को कहते हैं, 
फलदार वृक्ष हीं झूका करते हैं ।
क्षमा करना या क्षमा माँगना लचीलापन है,
दुखियों के दुख हर लेना हीं लचीलापन है ।

लचीलापन जिद्दी आदत का है विलोम,
अकड़ने की आदत को करता  है होम।
सुलह या समाधान करना हीं है लचीलापन,
सहयोगी बन सहिष्णुता दिखाना है लचीलापन ।

समय देखकर पाला बदल लेना भी लचीलापन है,
पर राजनीति में पार्टी बदल लेना तो खोखलापन है ।
एक विचारधारा पर अडिग रहना लचीलापन नहीं है,
पर जीवन को एक विचारधारा पर आधारित रखना हीं सही है।

शांतिपुर्वक जीवन के लिए लचीलापन आवश्यक है,
आनंदमय जीवन का लचीलापन व्यवस्थापक है।
लचीलापन व्यक्तित्व विकास का आधार है  
पर स्वार्थपूर्ण विकास भी तो अत्याचार है । 

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साहिबगंज :- 15/11/2019. 
जेएनयू(JNU) :- शिक्षा संस्थान या राजनीतिक मैंदान..। शेहला रसीद, उमर खालिद तथा कन्हैया कुमार की जन्मभूमि जेएनयू (JNU) की गतिविधियों पर अंकुश ज़रूरी है..। इस विश्वविद्यालय की बिमारी और बुराई सिर पर चढ़ चुकी है। सुनकर दुख हुआ कि देश के ऋषितुल्य स्वामी विवेकानंद की मूर्ति को तोडऩे मे कौन सा मजा आया इन जेएनयू के तथाकथित विद्वान विद्यार्थियों को..।
सरकार के भी न जाने क्या मजबूरी है जो इस शिशुपाल रूपी जेएनयू के सौ पाप पूरे नहीं हो पा रहे हैं और भारत भूमि पर किसी कृष्ण का प्रादुर्भाव हो और ऐसी संस्था को सदगति प्राप्त हो । मुझे तो ऐसा लगता है कि ये विद्यार्थी नहीं गिरोहबंद अपराधी हैं और ये निश्चित लक्ष्य लेकर चल रहे हैं। इनकी नकेल न कसना घातक होगा।
जेएनयू देश के सीने पर एक नासूर है।चाहे कपिल सिब्बल साहब हों या स्मृति ईरानी फिर प्रकाश जावड़ेकर और अब उनके उत्तराधिकारी रमेश पोखरियाल " निशंक " सबों की छवि इस क्षेत्र में किसी झोला छाप डॉक्टर से बेहतर नहीं दिख रही है। 
ईमानदारी से कहूँ तो बता दूँ कि  देश का भविष्य तय करने वाला  मंत्रालय दांत चियारने से नहीं चलता है । स्वायत्त संस्था में स्वायत्तता की परिभाषा और सीमा क्या है,निर्धारित होनी चाहिए ताकि संस्था निश्कलंकित चलता रहे ?
जेएनयू के भारत तेरे टुकड़े गेंग तथा निरंकुश और देशभंजक लौंडों ने निर्विवाद एवं आधुनिक भारत के देवतुल्य स्वामी विवेकानन्द जी की मूर्ति भी तोड़ दी ! ये छात्र नहीं बल्कि गिरोहबंद अपराधी हैं।
मुझे समझ नहीं आ रहा है कि जेएनयू को लेकर सरकार इतनी लाचार क्यों बनी हुई है समझ से परे है।
हे ईश्वर इन्हें सदबुद्धि दें।

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साहिबगंज:- 14/11/2019.

बाल मेला एवं प्रतियोगिता का आयोजन..! टाउन हॉल, साहिबगंज स्थित वंडर किड्स एकेडमी में पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाया गया..! उक्त बाल दिवस कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुआ..! उक्त मौके पर बच्चों से जुड़े विभिन्न मुद्दों जैसे शिक्षा, संस्कार, उनकी सेहत, मानसिक और शारीरिक विकास हेतु जरूरी विषयों, बाल-श्रम एवं बाल-शोषण जैसे गंभीर मुद्दों पर विचार-विमर्श व पर्यावरण संरक्षण चित्रांकन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया..! कार्यक्रम में सम्मिलित बच्चों की क्षमता और प्रतिभा को बढ़ावा देने हेतु उनके विलक्षण योग्यता को परखा..। बाल-दिवस पूर्णत: बच्चों के लिए समर्पित है। बच्चे देश का भविष्य हैं, वे ऐसे बीज के समान हैं जिन्हें दिया गया पोषण उनके विकास और गुणवत्ता का निर्धारित करेगा..। पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 को इलाहबाद में हुआ था..। उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है..। नेहरू जी का बच्चों से बड़ा स्नेह था और वे बच्चों को देश का भावी निर्माता मानते थे..। बच्चों के प्रति उनके इस स्नेह भाव के कारण बच्चे भी उनसे बेहद लगाव और प्रेम रखते थे और उन्हें चाचा नेहरू कहकर पुकारते थे..। यही कारण है कि नेहरू जी के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है..। 

बच्चे नाजुक मन के होते हैं और हर छोटी चीज या बात उनके दिमाग पर असर डालती है। उनका आज, देश के आने वाले कल के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इसलिए उनके क्रियाकलापों, उन्हें दिए जाने वाले ज्ञान और संस्कारों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही बच्चों की मानसिक और शारीरिक सेहत का ख्याल रखना भी बेहद जरूरी है। बच्चों को सही शिक्षा, पोषण, संस्कार मिले य‍ह देशहित के लिए बेहद अहम है, क्योंकि आज के बच्चे ही कल का भविष्य है। वंडर किड्स एकेडमी में बच्चों के विलक्षण प्रतिभा को उभारने में स्कूल की मुख्य शिक्षिका सह निदेशक कुमारी गरिमा का सराहनीय योगदान रहा..। 

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विलुप्त होती गंगधारा..!


अंधेरी रात में 
गंगा के किनारे 
सुनसान 
एकटक निहारता,
वही पुरानी यादें ।
क्या वो यही गंगधारा है?
जो सदियों से निश्छल,निश्कलंकित बहती 
समरसता का भाव जगाती ,
समुद्र में गिरने के पूर्व 
एकता का भाव जगाती है ।
नहीं कभी भी नहीं, 
पहचानता हूँ मैं 
उन धाराओं को ।
याद है मुझे, 
वह बचपन की मधुर यादें, 
दौड़कर छलांगें लगाना 
माँ की गालियाँ सुनना ।
याद है मुझे 
भींगे कमरबंध पर 
माँ द्वारा चपत लगाना ।
आज निःसंदेह दुख है,
बस स्मृति शेष है, 
रोता हूँ, गंगा की बेबसी पर ।
ना गंगा है, ना निश्छल धारा, 
यहाँ सिर्फ कसूर है हमारा, 
उनका सम्मान जरूरी है,
उनकी स्वच्छता जरूरी है,
धारा रूठ गयी,
साहेबगंज की तरह,
सरकारी इमानदार संरक्षण जरूरी है ।
आएं हम सब मिलकर 
एक प्रण करें, 
प्रण करें-
स्वच्छता की,
प्रण करें-
सामाजिक समरसता की,
साम्प्रदायिक सौहार्द की, 
प्रेरित करें-
सरकारी इमानदार संरक्षण की,
सरकारी सहायता की,
मुहाने की सफाई की ,
गंगा परियोजनाओं की।
जय हो 
गंगा माँ की ।


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साहिबगंज :- 09/11/2019. एक समीक्षा :- कवियों की चर्चा करें तो सैकड़ों बड़े-बड़े नाम सहज हीं सामने आ जाते हैं, परंतु दुर्भाग्यवश हिन्दी साहित्य में कवयित्रियों को वह जगह नहीं मिल पाई है जिसका वे हकदार हैं ।गिने-चुने कुछ नाम रह जाते हैं जिनके लेखनी से प्रस्फुटित शब्दों के जादू ने सबको सम्मोहित किया है और उनमें सरोजनी नायडू, कमला सुरैय्या, महादेवी वर्मा, बालामणि अम्मा, मीराबाई, नंदिनी साहू, सुभद्रा कुमारी चौहान, अमृता प्रीतम आदि नाम प्रसिद्ध हैं ।
परंतु राजमहल जैसे एक छोटे नगर के छोटी सी गलियों से उदित तथा वर्तमान महानगर कोलकाता की शोभा बढ़ाने वाली "शावर भकत" वास्तव में लेखन कला की "भवानी" हैं । मुख मंडल की सुंदरता व तेज आभा से आच्छादित आधुनिक युग की "शावर भकत भवानी" की लेखनी व उनके द्वारा शब्दों का चयन समय और काल से परे भाषा के बंधनों से आजाद और बेबाक हैं ।उनकी काव्यसंग्रह "अरुणोदय" से मैं  इतना प्रभावित हूँ कि उनका नाम प्रथमतः साहित्य अकादमी पुरस्कार व अंततः ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए सिफारिश करना चाहता हूँ । इनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ तथा आशा करता हूं कि पाठकों को यह पुस्तक "अरुणोदय" रोमांचित करेगा और पुस्तक हिंदी साहित्य में युगों युगों  तक अपनी पहचान बनाए रखेगा।
  मैं कविता की कुछ पंक्तियों  द्वारा इनके कवितासंग्रह अरुणोदय के साथ साथ  "शावर भकत भवानी" की महिमामंडित कर अपने वाक्य को विराम देता हूँ:-
राजमहल की "बेटी" है,
हिन्दी में "आशा की किरण" है,
गंगधारा से बहकर,
"समुन्दर की गोद में जीवन" है।
"कवि","प्यारी सखी", "स्त्री मन चंदन",
"स्वागत" है,शायद राजमहल व कोलकाता का प्रणय मिलन है।
"कसक ही रह गई","स्मृतियाँ"शेष रह गईं, 
"आँसू", "विरह","घुटन" "बालपन" छोड़ 
"अतुल्य हिन्दी" की "अस्तित्व" बचाने "भवानी" चलीं गईं ।
"कलम" साथ "अध्यापिका","विद्या की देवी "
"वतन " की "सैनिक" "दुर्गा" चली गईं ।
परंतु सोचता हूँ अच्छा है,
"देश अपना है"
"पर्यावरण हमारा है"
"व्यस्तता" "बहुत है"
"क्या कहूँ "
इस हिंगलिश युग में हिन्दी का "अस्तित्व" बचाने "भवानी" चलीं गईं ।
"अग्निपरीझा" है हिन्दी साहित्य की जब
होगा शावर भकत भवानी का अभ्युदय, 
जाग उठेगी मनोभावना,
जब प्रचलित होगा "अरुणोदय"।
शुभकामनाएं। 
सुबोध कुमार झा 
  (व्याख्याता) 
अर्थशास्त्र विभाग..।