12 नवंबर 2019

मेरी कविता- निर्मल "नीरू"

    जीवन-निराशा..!

हुए खड़े उठ सवाल दो
जाऊ कहाँ, करूँ मैं क्या,
जीवन भी ये चीज क्या..?
निराशा का आलम है..l  
ज़िंदा रहना ही मातम है..ll 

सोच न सकता हूँ कुछ,
कर न सकता हूँ कुछ,
प्रश्न है, कैसा ये..?
उत्तर है कहाँ, कैसा ये..?

चलना है कठिन राहों पर, 
जीने-मरने की रहे धर,
निराशा है, ना आशा,
जीवन जीना है, फिरा-सा..! 

आती है ना मौत कभी,
मरता हूँ न, जीता कभी,
नयनों की समुंद्रों में,
लगाता गोता कभी..!

लक्ष्य है ना, दिशा कोई,
जीने का ना, बीज बोई..!
अपना है ना, पराया कोई,
आशा ना, जीने की धरी..!

हुए खड़े उठ सवाल कई,
जाऊ कहाँ..? करू मैं क्या..?
जीवन भी ये चीज क्या..?
निराशा का आलम है..!
जिन्दा रहा ही मातम है..!!

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अब विकास नहीं.... होगा विनाश..l
देखते ही देखते होगा सत्यानाश..
और होगा नहीं विकास...ll 
अब राजमहल की पहाड़ी होगी वीरान...
साहिबगंज की सुंदरता का होगा सत्यानाश..!
मंत्री-सांसद मिल कहेंगे संतालों का हो रहा विकास...l 
पहले तो फिरंगियों ने लूटा..l 
अब लूटेंगे रंगा सियार..!!

अब विकास नहीं.... होगा विनाश..!
अब काला हीरा होगा काला...! 
ब्लैक स्टोन चिप्स को भी मार डालेगा..
साहेबगंज की भोली जनता कुछ समझ ना पाई..l
गंगापुल को छोड़ बंदरगाह तो है पाई..ll

अब विकास नहीं.... होगा विनाश..!
मोती झरना का मोती भी चूर होगा..l 
साहिबगंज की जनता का गुरूर भी चूर होगा..ll
अब राजमहल की पहाड़ी ना दिखेंगे वही..!!
अब घर नहीं...
परती जमीं सुनसान होगा..!  
चैत्यन की भूमि से कृष्ण भी नाराज़ होंगे..!! 
जिलेविया घाटी की सुंदरता भी खंडहर होंगे..! 
समदा नाला की...
ऐतिहासिक गाथा का विनाश होगा..!! 
अब साइबेरियन पंक्षी... 
उड़ ना आएंगे उधवा नाला में..! 

अब विकास नहीं.... होगा विनाश..!
अमर शहीद सिद्धू - कान्हू की भूमि... 
अपनी अतीत की राह जोहेगी... 
अब साहिबगंज की पावन भूमि, 
कूड़े का अम्बार होगा..ll 
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साहिबगंज:-13/04/2018
" दुबला - पतला छोरा "
गोरा - गोरा चेहरा वाला, लाल पैंट पहनने वाला।
कैसा दौड़ा, कैसा भागा, खाने को चाट पकौड़ा।
लगता मानो जी चटोरा, खाता खूब,चाट पकौड़ा।
गोरा-गोरा चेहरा वाला, लाल पैंट पहनने वाला।
पढता और लिखता थोड़ा, खाने वाला चाट -पकौड़ा।
सोता ज्यादा, जागता थोड़ा।खाता खूब चाट पकौड़ा।
अपनी मस्ती में रहने वाला, कभी न कुछ कहने वाला।
चेहरा गोरा लाल पैंट वाला, कैसा दौड़ा, कैसा भागा।
मुँह से लार टपकानेवाला, मीठा-खट्टा खाने वाला।
थोड़ा -थोड़ा हकलाने वाला, ठंडे से भी नहलावाला।
मेले में ये जानेवाला , ठेले का सबकुछ खानेवाला।
खेल-खिलौने खेलनेवाला, कैसा दौड़ा, कैसा भागा।
खाने को ये चाट पकौड़ा, चाट पकौड़ा भरदम खाया।
और ठंढे से भी नहलाया, अलावा इसके,कुछ न भाया।
लगता है-ये जी छिछोरा, खाता चाट भर कटोरा।
चेहरा उसका गोरा-गोरा, दुबला-पतला है छोरा।

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" जिंदगी जंजाल नहीं "
पता नहीं कौन है वह ?
कहाॅ  से आया है ?
पूछने पर उसने
अपना नाम - "जगीरा" बताया है..।
बेसुध - बेजान और अर्धनग्न ।
अपनी ही मस्ती मेँ ।
सभ्य शहर की बस्ती में ।
बीड़ी सुलगाता है।
गर्दन हिलाता है ।
दाँत दिखलाता है ।
"पागल"कहलाता है।
सड़क रूपी बिछावन पर
आकाश ओड़ सोना है ।
न सुख है, न दुःख है ।
न भाग्य पर ही रोना है ।
जिन्दगी जंजाल नहीं ।
खेल है खिलौना है ।