क्या मै वाकई मे स्वतंत्र हुँ....?? मै पूर्व परिचित थी। राष्ट्रीय नायिका बनने पर। मै जानती थी।ये राष्ट्र मुझे सुरक्षा देगा। मेरे अधिकारो के प्रति मुझे सजग होना सिखलाया है इस भूमि ने।भारत भूमि के प्रति जो शब्द समर्पित रहे। मेरे जीवन मे। अब यही शब्द मेरे जीवन की न्यायिक प्रक्रिया मे मेरा साथ देंगे। देश की विकास और प्रगति तभी होती है। जब प्रत्येक जीवन के उन्नयन तक आत्म सम्मान और नैतिक मूल्यों का संवर्धन हो। अपनी भारत भूमि के लिये मैने अपनी उत्कृष्ट सोच को अपने नजरिये से विकसित किया।ताकि यह भूमि भ्रष्टाचार से मुक्त हो संविधान से उपर उठ कर क्या किसी संस्था को अधिकार है कि वो अनैतिकता का बीजा रोपण करें इस भूमि पर। व्यक्तिवादी संकीर्ण सोच पर पूरा समाज गंदा हो जाये तो ऐसी सोच को दमित करना ही हमारी/आपकी प्राथमिकता होनी चाहिये/ कर्त्तव्य बोध मे जीवन की मुलत: बनी रहती है। हमारा समाज अच्छाई को लेकर निरंतर प्रगति पथ पर गतिमान रहे। इसके लिये जरूरी होता है परिवार,समाज, राष्ट्र को भ्रष्टाचार से मुक्त रखना। अनैतिक और भय मुक्त जीवन से निर्गत होकर अपनी भूमि पर सर्वोच्च मानसिकता को रेखांकित करना ही मेरे जीवन का एक मात्र ध्येय है। बचपन मे नंगे पाँव जब मै कच्ची राहो मे दौड़ती हुई स्कुल मे प्राथमिक शिक्षा हासिल करने पहुंची थी। मैने पहला पाठ पढ़ी थी कि मेरा देश का नाम भारत है। हमारा देश अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त हुआ 15 अगस्त 1947 को। स्वतंत्र देश मे (मै) जन्मी/पली/बढ़ी हुँ। आज मै यौवन अवस्था की दहलीज मे खड़ी एक खनक सी होती है। झंकृत होता है मेरा अन्तर्मन। कि क्या मै वाकई मे स्वतंत्र हुँ। नही इस उत्तर मे मेरे जीवन का प्रयुत्तर ठहर गया है। मै पराधीन हुँ। समाज के संकीर्ण मानसिकता मे मुझे व्यक्तिगत स्वतंत्रता चाहिए। अपनी अभिव्यक्ति, अपनी विचारधारा, अपनी सोच,अपने जीवन के निर्णय लेने के लिए मै स्वतंत्रता चाहती हुँ।मै ऐसी शिक्षा प्राप्त करना चाहती हुँ। जो मुझे अपने संवैधानिक अधिकारो को प्राप्त करने के लिए।मेरी निजता पर सवाल न करे। एक मामूली सी मामूली लड़की (मै) मेरे होने का अर्थ इस लोकतंत्र राष्ट्र मे कितना अहमियत रखता है। राष्ट्र के साथ (मै) सैन्धानतिक रूप से जुड़ कर स्वतंत्र होना चाहती हुँ। औरत को अपना जीवन रिश्तो की दरार मे फटी एड़ियों मे अपना अक्स देखने की आदत सी पड़ गयी है।मै अपनी मूल्यो को अपनी विचारधारा की पृष्ठभूमि पर रेखांकित करना चाहती हुँ। मुझे स्वतंत्रता चाहिए। साथ ही संवैधानिक अधिकार भी। एक आम आदमी की आवाज दमित नजर आती है। उसे पूरी तरह से भरोसा हो कि वे भी इस राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निष्ठ होकर जीवन यापन कर सकता है। इस राष्ट्र के विकास मे इस देश की छोटी- छोटी भू-भाग मे एक-एक आदमी के सपने पूरे नही हो पाते है। क्योकि संवैधानिक अधिकार पर किसी समाज के बाहुबल हाथो का हस्तक्षेप नही होता है। सपोर्ट नही होता है। भ्रष्ट समाज की महानुभाव की। टूटेगी यह मिथ्या धारणा की हमारे समाज मे प्रति व्यक्ति अपनी संवैधानिक अधिकारों के लिये स्वतंत्र होना चाहता है। भ्रष्ट सिस्टम के हिस्से से मुक्त होकर वह अपने मूल अधिकारों व अपने मूलतत्व को अपने जीवन मे आत्मसात करके। स्वतंत्र देश मे स्वतंत्र होकर जीना चाहता है। आम से आम मामूली से मामूली व्यक्ति भी अपने सपनो को पूरा कर सकेगे जब हमारा समाज भ्रष्टाचार मुक्त होगा। भ्रष्ट समाज की मानसिकता मे जकड़ी हुयी पराधीनता मुझे स्वीकार्य नही है। अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मै अपील करती हुँ। गणतंत्र की भीड़ से अपने संवैधानिक अधिकार प्राप्त करना चाहती हुँ।
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शब्दो में जीत हासिल करना चाहती हुँ....
शब्दो में अर्थपूर्ण की स्वीकृति अथवा सहमति है।
शब्द अंतछोर तक तुमको अपने जीवन मे आत्मसात करना चाहती हुँ।
संर्पूणता को प्राप्त करता ये शब्द सिलवटो पर जीवन की व्यख्या करता है।
लिखती हुँ जब इन शब्दो को परोक्ष या अपरोक्ष
ये हमारे जीवन की प्रतिबद्धता को प्रत्यक्ष करता है।
शब्द मुझे अनुशासित एंव सहनशील बनाता है।
ताकि मैं खड़ी रहुँ समाजिक चुनौती के लिए।
व्याख्या कर सकु जीवन के मूल्यो की।
जो सामाजिक बहिष्कार मे दमित नजर आते है।
शोषित है ये समाज अपने ही संकीर्ण मानसिकता पर लज्जित नही होती।
ये अपनी ही अशब्दो की सीमाहीनता पर
शब्दो ने बहुत कोशिश की इन्हे अपनी परिधि में बाधने की
शब्द के खंडित होने पर सामाजिक संरचना असंतुलित हो जाती है।
सामाजिक दायित्व के निर्वाह हेतु बंधना पड़ा है।
शब्दो के ज्वलंत मुद्दो पर सामाजिक सरोकार पर ये शब्द धुव्रीकरण होता गया है।
ताकि समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक दुसरे के प्रति परस्पर सहयोग देता रहे.
सामाजिक मूल्यो के प्रति।
निशब्द पर भी चोट करते है ये शब्द तब जाकर भारतवर्ष का निर्माण हुआ है।
इसकी गरिमा इसकी संप्रभुता हमारे हाथ मे है।