चेहरे पे ग़म के आसार बैठे है
एक नही कई हज़ार बैठे है
मैं हुस्न का कायल तो नही मगर
तेरे दो नैन के आगे दिल हार बैठे है
*********
सियासत..!!
जी करता है मातम मनाऊँ सियासत के मज़ार पर..!
अपनों से दूरी बन जाती है लोकतंत्र के त्यौहार पर..!!
सियासी लोगों ने कैसा खेल रचा है अपनों के बीच..,
लोग उँगली उठाते फिर रहे हैं एक दूसरे के किरदार पर..!!
कोई ऐसी ख़बर दिखाओ जो बात करे उन्नति ओ विकास की..,
फ़क़त नेताओं की तस्वीर आ रही है आज कल के अखबार पर..!!
कोई अपना क़लम बेच रहा है, तो कोई अपना ज़मीर..,
फ़र्ज़ को बिकता देख रहा हुँ, खादी वालों के दरबार पर..!!
लोग मज़हब के नाम पर बंट रहे हैं, वतन की आबरू खतरे में है..,
मोहब्बत आखरी साँस ले रही है सियासत की तलवार पर..!!
कही वादे, कही नारे, कही आस, कही उम्मीदें..,
ये सारी चीज़ें झूटी है, जितनी चस्पा है दीवार पर..!!
************************* चुनावी मौसम..!
हर गली हर नुक्कड़ पे बैनर नज़र आता है..!
अजीब ये चुनावी मंज़र नज़र आता है..!!
कभी मकान भी ना मिला करते थे रहने को..,
आज हर मोड़ पर सियासी दफ्तर नज़र आता है..!
मुझ से बेहतर कोई नही, हर प्रत्याशी का नारा है..,
क़दम-क़दम पे हर कोई रहबर नज़र आता है..!
बज़ाहिर में तो कागज़ है, लेकिन है बहुत खतरनाक..,
अब परचे की शक्ल में हर हाथ मे खंज़र नज़र आता है..!
दीवारें भरी पड़ी है इंकलाब के नारों से..,
शहर में हर तरफ सियासी पोस्टर नज़र आता है..!
हर शख्स घर से निकलने में डरता है फैसल..,
सियासत का डर हर शख्स के अंदर नज़र आता है..!!
************
मिर्ज़ा ग़ालिब और अमीर खुसरो के लिए..।
ये जरूरी नही के मोहब्बत हो फ़क़त अपने शहर से.,
मेरे महबूब का मसकन "दिल्ली" भी तो हो सकता है..।
मसकन=रहने की जगह..।
مرزا غالب اور امیر خسرو کے لئے،
یہ ضروری نہیں کہ محبت ہو فقط اپنے شہر سے،
مرے محبوب کا مسکن"دللی" بھی تو ہو سکتا ہے،
***************
पियाला-ए-मै, मेरे हाथ मे है, और मैं, मै नोश हुँ..!
साक़ी से कहो और पिलाए अभी बा होश हुँ..!
खुदा ने बनाई है दुनिया तफरीह के वास्ते सो मैं..,
निकला हुँ बाँध कर रख्त-ए-सफर,एक खाना बदोश हुँ..!
शब्दार्थ..👇!
पियाला-ए-मै = शराब का पियाला.., मै नोश = शराब पीना.., साक़ी = पिलाने वाला.., तफरीह = घूमना, सैर करना..! रख्त-ए-सफर = सफर में ले जाने वाले सामान.., ख़ाना बदोश = बे ठिकाना, बे घर..!
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मिर्ज़ा ग़ालिब और अमीर खुसरू के लिए..।
ये जरूरी नही के मोहब्बत हो फ़क़त अपने शहर से.,
मेरे महबूब का मसकन "दिल्ली" भी तो हो सकता है..।
मसकन=रहने की जगह..।
مرزا غالب اور امیر خسرو کے لئے،
یہ ضروری نہیں کہ محبت ہو فقط اپنے شہر سے،
مرے محبوب کا مسکن"دللی" بھی تو ہو سکتا ہے،
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फुरक़तों का लम्हा भी अजीब लम्हा है..,
मेरे सीने में चुभन मिस्ल ए तीर देती है..!
गरीब की आह से हमेशा बचना फैसल..,
ये वो सदा है जो आसमां चीर देती है..!
(फ़ुर्क़त=जुदाई)
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खुशी हमदम अगर होती मुझे रोने को क्या होता,
एक नही कई हज़ार बैठे है
मैं हुस्न का कायल तो नही मगर
तेरे दो नैन के आगे दिल हार बैठे है
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सियासत..!!
जी करता है मातम मनाऊँ सियासत के मज़ार पर..!
अपनों से दूरी बन जाती है लोकतंत्र के त्यौहार पर..!!
सियासी लोगों ने कैसा खेल रचा है अपनों के बीच..,
लोग उँगली उठाते फिर रहे हैं एक दूसरे के किरदार पर..!!
कोई ऐसी ख़बर दिखाओ जो बात करे उन्नति ओ विकास की..,
फ़क़त नेताओं की तस्वीर आ रही है आज कल के अखबार पर..!!
कोई अपना क़लम बेच रहा है, तो कोई अपना ज़मीर..,
फ़र्ज़ को बिकता देख रहा हुँ, खादी वालों के दरबार पर..!!
लोग मज़हब के नाम पर बंट रहे हैं, वतन की आबरू खतरे में है..,
मोहब्बत आखरी साँस ले रही है सियासत की तलवार पर..!!
कही वादे, कही नारे, कही आस, कही उम्मीदें..,
ये सारी चीज़ें झूटी है, जितनी चस्पा है दीवार पर..!!
************************* चुनावी मौसम..!
हर गली हर नुक्कड़ पे बैनर नज़र आता है..!
अजीब ये चुनावी मंज़र नज़र आता है..!!
कभी मकान भी ना मिला करते थे रहने को..,
आज हर मोड़ पर सियासी दफ्तर नज़र आता है..!
मुझ से बेहतर कोई नही, हर प्रत्याशी का नारा है..,
क़दम-क़दम पे हर कोई रहबर नज़र आता है..!
बज़ाहिर में तो कागज़ है, लेकिन है बहुत खतरनाक..,
अब परचे की शक्ल में हर हाथ मे खंज़र नज़र आता है..!
दीवारें भरी पड़ी है इंकलाब के नारों से..,
शहर में हर तरफ सियासी पोस्टर नज़र आता है..!
हर शख्स घर से निकलने में डरता है फैसल..,
सियासत का डर हर शख्स के अंदर नज़र आता है..!!
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मिर्ज़ा ग़ालिब और अमीर खुसरो के लिए..।
ये जरूरी नही के मोहब्बत हो फ़क़त अपने शहर से.,
मेरे महबूब का मसकन "दिल्ली" भी तो हो सकता है..।
मसकन=रहने की जगह..।
مرزا غالب اور امیر خسرو کے لئے،
یہ ضروری نہیں کہ محبت ہو فقط اپنے شہر سے،
مرے محبوب کا مسکن"دللی" بھی تو ہو سکتا ہے،
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पियाला-ए-मै, मेरे हाथ मे है, और मैं, मै नोश हुँ..!
साक़ी से कहो और पिलाए अभी बा होश हुँ..!
खुदा ने बनाई है दुनिया तफरीह के वास्ते सो मैं..,
निकला हुँ बाँध कर रख्त-ए-सफर,एक खाना बदोश हुँ..!
शब्दार्थ..👇!
पियाला-ए-मै = शराब का पियाला.., मै नोश = शराब पीना.., साक़ी = पिलाने वाला.., तफरीह = घूमना, सैर करना..! रख्त-ए-सफर = सफर में ले जाने वाले सामान.., ख़ाना बदोश = बे ठिकाना, बे घर..!
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मिर्ज़ा ग़ालिब और अमीर खुसरू के लिए..।
ये जरूरी नही के मोहब्बत हो फ़क़त अपने शहर से.,
मेरे महबूब का मसकन "दिल्ली" भी तो हो सकता है..।
मसकन=रहने की जगह..।
مرزا غالب اور امیر خسرو کے لئے،
یہ ضروری نہیں کہ محبت ہو فقط اپنے شہر سے،
مرے محبوب کا مسکن"دللی" بھی تو ہو سکتا ہے،
***************
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फुरक़तों का लम्हा भी अजीब लम्हा है..,
मेरे सीने में चुभन मिस्ल ए तीर देती है..!
गरीब की आह से हमेशा बचना फैसल..,
ये वो सदा है जो आसमां चीर देती है..!
(फ़ुर्क़त=जुदाई)
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खुशी हमदम अगर होती मुझे रोने को क्या होता,
उसे अगर पा लिया होता तो फिर खोने को क्या होता..।
वो मुझ से दूर ना होती, मै उनसे दूर ना होता,
ये अनहोनी नही होती तो फिर होने को क्या होता..।
मैं जब-जब थक के रुकता हूँ तो काँधे चीख उठते है,
ये जीवन बोझ ना होता तो फिर ढ़ोने को क्या होता..।
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